सन १९६२ में मैं फ्रूट रिसर्च स्टेशन धौलाकुंआं में रिसर्च असिस्टेंट था. मेरी उम्र उस समय २३ साल की थी. यह मेरे कैरियर की पहली नौकरी थी. वहां दफ्तर के ऑडिट के दौरान पता चला कि स्टेशन के एक क्लर्क नरदेव सिंह राणा ने लगभग 6 या 7000 रुपये का गबन कर लिया था. यह काम नरदेव सिंह ने तीन साल में किया था. नरदेव बिलों को अफसर से पास करवा कर बाद में बिल की राशि में 1 का अंक लगा देता और इस तरह 600 के बिल को 1600 का बना देता. कैशबुक में 600 दिखाता और 1000 रुपये खुद खा जाता. वो बहुत सस्ता ज़माना था. डेली पेड मजदूर को एक रुपया सत्तासी पैसे मिलते थे. इसलिए बहुत से कंटिनजेंट बिल हज़ार रुपये नीचे ही होते थे.
इस घपले का पता तब चला जब नरदेव वहां से हैड क्लर्क प्रोमोट होकर मंडी चला गया. नरदेव वैसे बहुत ही मिलनसार और सबसे दोस्ती रखने वाला और वक्त पर सबके काम आने वाला शख्श था. धौलाकुआं में कोइ यह सोच भी नहीं सकता था कि यह आदमी कभी ऐसा काम करेगा. उसका रहन सहन भी बहुत सादा था.
जैसे ही घपले का पता चला कृषि विभाग की ओर से मामला पुलिस को रिपोर्ट कर दिया गया. नरदेव को गिरफ्तार कर लिया गया. उसे हथकड़ी में पूछताछ के लिए मंडी से धौलाकुआं लाया गया. बाद में उसपर नाहन की अदालत में सरकारी पैसे के गबन का मुकद्दमा चला. कुछ टैक्नीकल कानूनी कारणों से उस पर सात केस चले. केसों का फैसला दो साल के अन्दर ही हो गया. नरदेव को विभिन्न केसों में 14 से 18 महीनों की जेल हुई. क्योंकि सभी फैसलों की सज़ाएँ एक साथ शुरू हुई, इस लिए नरदेव को केवल 18 महीने ही जेल में बिताने पड़े.
दूसरा किस्सा 1969 का है. तब में कांगड़ा जिला के बागवानी विकास अधिकारी के रूप में धर्मशाला में तैनात था। एक दिन जब मैं कांगड़ा शहर में किसी काम के सिलसिले में आया हुआ था, तो मुझे कांगड़ा के एस डी एम, एस के आलोक का सन्देश मिला कि मैं कुछ उनके निवास पर आकर उनसे मिलूं. मेरे वहां पहुँचने पर उनहोंने मुझे बताया कि वे एक छापा मारने जा रहे हैं और मुझे उसमें बतौर शैडो विटनैस रखना चाहते हैं. श्री आलोक एक युवा आई ए एस अधिकारी थे और शायद यह उनके कैरियर की पहली पोस्टिंग थी. उनके घर पर, डी एस पी कांगड़ा, पी एस कुमार भी बैठे थे. श्री कुमार भी युवा आई पी एस अधिकारी थे और शायद उनकी भी यह पहली पोस्टिंग थी. उन दिनों कांगड़ा में इंडो जर्मन एग्रीकल्चर प्रोजेक्ट चल रहा था जिसके कारण हम सब का आपस में मिलना जुलना होता रहता था. हम तीनों हम उम्र भी थे और शायद इसीलिये आलोक ने अपनी इस छापामार टीम में हमको शामिल किया था.
आलोक ने बताया कि तहसील का एक क्लर्क रिश्वत मांग रहा है और उसको रंगे हाथों पकड़ना है. मेरे लिए यह बहुत ही अनअपेक्षित काम था और मैं इसके लिए मानसिक रूप से कतई तैयार नहीं था. इसलिए पहले तो मैं घबराया पर बाद में उन दोनों के समझाने पर तैयार हो गया.
आलोक ने छापे संबंधी कानूनी कागज़ात तैयार किये और फिर दस दस रूपये के दो नोट अपने हस्ताक्षर करके शिकायत कर्ता को दिए. उसे बताया कि ये नोट वह उस क्लर्क को देदे और हमें इशारा कर दे.
योजनानुसार हम तहसील जाकर बाहर बरामदे में खड़े हो गए. शिकायत कर्ता ने अन्दर जा कर क्लर्क से बात की और वो बीस रुपये के नोट उसे दे दिए. फिर उसने बाहर निकल कर हम लोगों को इशारा किया कि काम हो गया.
इसके बाद एकदम आलोक हम दोनों के साथ क्लर्क की सीट गए और क्लर्क से पूछा कि क्या उसने पैसे लिए. क्लर्क ने इनकार किया. तो आलोक ने क्लर्क की जेब की तलाशी ली और वो बीस रुपये के नोट बरामद कर लिए. क्लर्क को तुरंत गिरफ्तार कर लिया गया. सब कुछ क्षणों में हो गया. मैंने तब आलोक से पूछा कि अब क्या होगा. उसपर आलोक ने कहा अब आगे का काम ठाकुर चेत राम करेंगे. ठाकुर चेत राम उस समय धर्मशाला में सैशन जज थे. शायद इस किस्म के मुकद्दमे उस वक्त सैशन जज के पास जाते थे.
उसके बाद साल भर केस चला. ठाकुर चेत राम ने क्लर्क को दो साल की जेल की सजा दे दी. सुना था कि उस क्लर्क ने सैशन जज के फैसले के खिलाफ ऊपरी अदालत में अपील भी की थी जो खारिज हो गयी थी और उस क्लर्क को बीस रुपये की रिश्वत के लिए दो साल कड़ी जेल भुगतनी ही पडी थी.
आज के भारत में जहां अब करोडो अरबों के घपले और रिश्वत काण्ड हो रहे हैं क्या कोइ विश्वास करेगा कि कहीं 6-7 हज़ार के घपले या बीस रुपये की रिश्वत के बदले भी जेल जाना पड़ सकता है और वो भी अपराध करने के दो साल के अन्दर.
काश देश में आज भी ऐसा हो पाता.