मई महीने में माइट पर नियंत्रण के लिए 200 लीटर पानी में डेढ़ से दो लीटर समर ऑयल

मई महीने में माइट पर नियंत्रण के लिए 200 लीटर पानी में डेढ़ से दो लीटर समर ऑयल




रस्टिंग की समस्या से परेशान बागवानों को पैटल फॉल के दौरान 200 लीटर पानी में 250 ग्राम बोरिक एसिड का छिडक़ाल करना जरूरी है। इससे रस्टिंग पर काबू पाया जा सकता है। फ्रूट सैटिंग पर सबसे पहली स्प्रे कैल्शियम नाइट्रट की करें। कैल्शियम नाइट्रेट फ्रूट की सैल डिविजन में मदद करता है। यहां ध्यान रखा जाए कि इसके साथ बोरोन की स्प्रे कतई न करें। यहां प्रसंगवश यह भी जिक्र जरूरी है कि किसी भी खाद के साथ मिलाकर बोरोन की स्प्रे न करें। इससे फसल को नुकसान हो सकता है। कारण यह है कि केमिकल फर्टीलाइजर के साथ बोरोन की कंपेटिबिलिटी नहीं है। कैल्शियम नाइट्रेट की स्प्रे 45 दिन के भीतर फिर दोहराएं। इससे फ्रूट की सैल डिविजन, फ्रूट लोंगेशन व साइज के बढऩे में काफी मदद मिलती है।
फ्रूट सैटिंग के बाद कैल्शियम नाइट्रेट के साथ सौ ग्राम मैगनीशियम मिलाने से प्रकाश संश्लेषण अच्छा होता है। क्योंकि मैगनीशियम पत्तियों में क्लोरोफिल को बढ़ाता है। बागीचे में पाउड्रीमिलड्री की परेशानी को दूर करने के लिए माइक्रोबुटानिल की स्प्रे की जानी चाहिए। मई महीने में माइट पर नियंत्रण के लिए 200 लीटर पानी में डेढ़ से दो लीटर समर ऑयल की स्प्रे जरूर करें। इससे माइट का खतरा टल जाता है। इस स्प्रे से प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया तेज होती है।
यूरिया की जानकारी जरूरी

यूरिया की जानकारी जरूरी



बागीचों में मिट्टी में नाइट्रोजन की कमी को पूरा करने के लिए विशेषज्ञों ने यूरिया के इस्तेमाल का सुझाव दिया है। फल देने वाले पौधे में एक किलो यूरिया डाला जा सकता है। मार्च माह में इसका प्रयोग किया जा सकता है। एक किलो यूरिया का प्रयोग बागीचे की स्थिति के अनुसार एक बार में ही या फिर किश्तों में भी किया जा सकता है। इसके साथ एक किलो चूने का प्रयोग भी करना चाहिए। यूरिया में 46 फीसदी नाइट्रोजन होता है। यूरिया मिट्टी की नेचर को एसिडिक बनाता था, इस कारण बागवानों ने इसका प्रयोग बंद किया था, परंतु वैज्ञानिक यह सुझाते हैं कि चूने के प्रयोग से एसिडिक नेचर खत्म होती है और पौधे को नाइट्रोजन का पूरा पोषण मिलता है।
यदि मिट्टी परीक्षण में भूमि का एसिडिक 5 से 6 मानक का है तो यूरिया के साथ चूना लगाना बेहद जरूरी है। अगर पीएच 6.5 से लेकर 7 से अधिक है तो यूरिया के साथ चूने के प्रयोग की जरूरत नहीं है। यूरिया दाम में सस्ता है। इसे बागवान बेहिचक प्रयोग कर सकते हैं। एक किलो यूरिया के जरिए एक पौधे की नाइट्रोजन की 700 ग्राम की मात्रा पूरी हो जाती है।
पोषक तत्वों/खादों को डालने का कार्य

पोषक तत्वों/खादों को डालने का कार्य

मार्च महीने में फूल आने से दो या तीन सप्ताह पहले नाइट्रोजन की आधी मात्रा पौधों के तौलिए में डालें। इसी तरह अप्रैल माह या फ्रूट सेट होने के बाद बची हुई नाइट्रोजन की आधी मात्रा भी डाल दें। यदि किसी कारणवश नाइट्रोजन (कैन खाद) भूमि में न डाल सकें तो 200 लीटर पानी में एक किलोग्राम घोल कर छिडक़ाव करें। बोरोन की कमी को दूर करने के लिए 200 ग्राम बोरीक एसिड 200 लीटर पानी में घोल कर 15 दिन में दो छिडक़ाव जून माह में करें। इसी तरह मैग्नीज की कमी पर मैग्नीज सल्फेट 800 ग्राम 200 लीटर पानी में घोल कर 15 दिन के भीतर दो छिडक़ाव करें। कॉपर (तांबा) की कमी को दूर करने के लिए कॉपर सल्फेट 600 ग्राम 200 लीटर पानी में घोल कर 15 दिन के अंदर जून-जुलाई में दो छिडक़ाव करें। कैल्शियम की कमी दूर करने के लिए एक किलोग्राम कैल्शियम क्लोराईड 200 लीटर पानी में घोल कर तुड़ाई से 45 दिन और 30 दिन पहले दो छिडक़ाव करें। यह छिडक़ाव फल भंडारण के लिए आवश्यक है। यहां इस बात का ध्यान रखना जरूरी है कि जिंक सल्फेट, कॉपर सल्फेट और मैग्नीज सल्फेट के साथ आधी मात्रा में अनबुझा चूना अवश्य मिलाएं नहीं तो पत्ते झुलस सकते है और फल पर भी व्याधियां आ सकती हैं।
अब पत्तों पर पैनी नजर रखने से होगा माईट का बचाव

अब पत्तों पर पैनी नजर रखने से होगा माईट का बचाव

सेब का माईट मकड़ा है जिसकी दो प्रजातियां युरोपियन रैड माईट तथा टू-स्पॉटिड माईट माईट सेब की फसल को नुक्सान पहुचातें हैं। यूरोपियन रैड माईट लाल रंग और छोटा होता है है और लैंस की सहायता से सुगमता से देखा जा सकता है। वयस्क मादा की लम्बाई 0.4 मि.मी. लम्बी होती है, जिसकी पीठ उभर हुई तथा उस पर श्वेत गोल चिन्ह होते है सर्दियों में दिए जाने वाले अण्डे गहरे लाल रंग के तथा गर्मियों में अण्डों का रंग हल्का लाल होता है। रैड माईट के लारवा अपने सुईनुमा मुंह से पत्तियों में कई बार छेद करते हैं तथा पौधे का क्लोरोफिल चाट जाते हैं। माईट बागीच में फसल को बर्बाद करके दूसरी साल होने वालीफल को भी नुक्सान पहुचातें हैं। माइट को लेकर बागवान कुछ लापरवाह रहते हैं ऐसा नहीं होना चाहिए। माइट का स्प्रे पत्तों की सही जांच के बाद जून के प्रथम सप्ताह की जानी चाहिए जबकि बागवान तब स्प्रे करते है जब माइट पत्तों को नुक्सान करके फसल का नुक्सान कर चुका होता है ।
माईट को कैसे नियंत्रित करें
रैड माईट का नियन्त्रण का सबसे कारगर तरीका हॉर्टिक्ल्चरल मिनरल ऑयलकी स्प्रे है। बागीच में माईट की संख्या दो से तीन हो तो दो लीटर ऑयल 200 लीटर पानी में मिलाकर स्प्रे करें । ,पर उसके लिए पत्तों कर सही जांच करना आवश्यक है । ऑयल में किसी भी तरह के कीटनाशक को नहीं मिलाया जाना चाहिए। दूसरा उपाय अनुकूल मौसम में माईटनाशक रसायनों में सीपरोमैसीफीन 22.7 फीसदी एससी, 60 एमएल 200 लीटर पानी में शुरू में स्प्रे करने से होता है। यह दवाई शुरू में करे बागीच में माईट की संख्या अधिक होने पर यह कारगार नहीं है,ऐस में फन्जाक्वीन 10 ईसी, 50 एमएल,हैकसीथाईजोक्स, 200 एमएल और प्रापाजाइट, 200 एमएल का प्रयोग 200 लीटर पानी में स्प्रे कर माईट की रोकथाम कर सकतें है। बागवान यह ध्यान रखें की सामान्य कीटनाशकों का प्रयोग माईट नियन्त्रण में कारगर नहीं है।
नाशपाती, जो नज़र आती है सेब

नाशपाती, जो नज़र आती है सेब

सेब जैसी दिखने वाली पीसफुल रोजी क्लाउड नाशपाती

यह है “पीसफुल रोजी क्लाउड” नाशपाती, जो देखने में बिलकुल सेब लगती है पर स्वाद में नाशपाती है. 
नाशपाती की यह किस्म चीन के प्रोफ़ेसर झांग शाओलिन ने खोजी है. प्रो. शाओलिन चीन के नानजिंग कृषि विश्वविद्यालय में पढ़ाते मैं और इसी यूनिवर्सिटी पियर रिसर्च सेंटर में फ्रूट ब्रीडिंग पर  अनुसंधान करते हैं और नाशपातियों पर अपनी खोजों के लिए दुनिया भर में जाने जाते हैं. 

इस नाशपाती के फल केवल देखने में ही आकर्षक नहीं है परन्तु खाने में भी बहुत स्वादिष्ट है. इनका स्वाद हल्की खटास लिए मीठा है. इसका गूदा नरम और रसदार है. पीसफुल रोजी क्लाउड नाशपाती के फल न केवल बाहर से, बल्कि अन्दर से भी सेब जैसे दिखाते हैं. प्रो. शाओलिन को पूरी उम्मीद है कि नाशपाती की यह नयी किस्म लोगों को पसंद आयेगी और भविष्य में बहुत लोक प्रिय होगी.

पीसफुल रोजी क्लाउड नाशपाती के फल प्रो शाओलिन ने चीन के उत्तर पश्चिमी भाग में देखे थे. उन्होंने इस किस्म के पेड़ वहां से लाकर अपने अनुसंधान केंद्र में कई वर्षों तक टेस्ट किये और फिर तब इनको बागबानों को बांटना शुरू किया.
हिमाचल में 50 साल पहले हुए रिश्वत और भ्रष्टाचार के दो किस्से

हिमाचल में 50 साल पहले हुए रिश्वत और भ्रष्टाचार के दो किस्से

सन १९६२ में मैं फ्रूट रिसर्च स्टेशन धौलाकुंआं में रिसर्च असिस्टेंट था. मेरी उम्र उस समय २३ साल की थी. यह मेरे कैरियर की पहली नौकरी थी. वहां दफ्तर के ऑडिट के दौरान पता चला कि स्टेशन के एक क्लर्क नरदेव सिंह राणा ने लगभग 6 या 7000 रुपये का गबन कर लिया था. यह काम नरदेव सिंह ने तीन साल में किया था. नरदेव बिलों को अफसर से पास करवा कर बाद में बिल की राशि में 1 का अंक लगा देता और इस तरह 600 के बिल को 1600 का बना देता. कैशबुक में 600 दिखाता और 1000 रुपये खुद खा जाता. वो बहुत सस्ता ज़माना था. डेली पेड मजदूर को एक रुपया सत्तासी पैसे मिलते थे. इसलिए बहुत से कंटिनजेंट बिल हज़ार रुपये नीचे ही होते थे. 

इस घपले का पता तब चला जब नरदेव वहां से हैड क्लर्क प्रोमोट होकर मंडी चला गया. नरदेव वैसे बहुत ही मिलनसार और सबसे दोस्ती रखने वाला और वक्त पर सबके काम आने वाला शख्श था. धौलाकुआं में कोइ यह सोच भी नहीं सकता था कि यह आदमी कभी ऐसा काम करेगा. उसका रहन सहन भी बहुत सादा था.  

जैसे ही घपले का पता चला कृषि विभाग की ओर से मामला पुलिस को रिपोर्ट कर दिया गया. नरदेव को गिरफ्तार कर लिया गया. उसे हथकड़ी में पूछताछ के लिए मंडी से धौलाकुआं लाया गया. बाद में उसपर नाहन की अदालत में सरकारी पैसे के गबन का मुकद्दमा चला. कुछ टैक्नीकल कानूनी कारणों से उस पर सात केस चले. केसों का फैसला दो साल के अन्दर ही हो गया. नरदेव को विभिन्न केसों में 14 से 18 महीनों की जेल हुई. क्योंकि सभी फैसलों की सज़ाएँ एक साथ शुरू हुई, इस लिए नरदेव को केवल 18 महीने ही जेल में बिताने पड़े. 

दूसरा किस्सा 1969 का है. तब में कांगड़ा जिला के बागवानी विकास अधिकारी के रूप में धर्मशाला में तैनात था। एक दिन जब मैं कांगड़ा शहर में किसी काम के सिलसिले में आया हुआ था, तो मुझे कांगड़ा के एस डी एम, एस के आलोक का सन्देश मिला कि मैं कुछ उनके निवास पर आकर उनसे मिलूं. मेरे वहां पहुँचने पर उनहोंने मुझे बताया कि वे एक छापा मारने जा रहे हैं और मुझे उसमें बतौर शैडो विटनैस रखना चाहते हैं. श्री आलोक एक युवा आई ए एस अधिकारी थे और शायद यह उनके कैरियर की पहली पोस्टिंग थी. उनके घर पर, डी एस पी कांगड़ा, पी एस कुमार भी बैठे थे. श्री कुमार भी युवा आई पी एस अधिकारी थे और शायद उनकी भी यह पहली पोस्टिंग थी. उन दिनों कांगड़ा में इंडो जर्मन एग्रीकल्चर प्रोजेक्ट चल रहा था जिसके कारण हम सब का आपस में मिलना जुलना होता रहता था. हम तीनों हम उम्र भी थे और शायद इसीलिये आलोक ने अपनी इस छापामार टीम में हमको शामिल किया था.

       आलोक ने बताया कि तहसील का एक क्लर्क रिश्वत मांग रहा है और उसको रंगे हाथों पकड़ना है. मेरे लिए यह बहुत ही अनअपेक्षित काम था और मैं इसके लिए मानसिक रूप से कतई तैयार नहीं था. इसलिए पहले तो मैं घबराया पर बाद में उन दोनों के समझाने पर तैयार हो गया.

       आलोक ने छापे संबंधी कानूनी कागज़ात तैयार किये और फिर दस दस रूपये के दो नोट अपने हस्ताक्षर करके शिकायत कर्ता को दिए. उसे बताया कि ये नोट वह उस क्लर्क को देदे और हमें इशारा कर दे. 

       योजनानुसार हम तहसील जाकर बाहर बरामदे में खड़े हो गए. शिकायत कर्ता ने अन्दर जा कर क्लर्क से बात की और वो बीस रुपये के नोट उसे दे दिए. फिर उसने बाहर निकल कर हम लोगों को इशारा किया कि काम हो गया.

       इसके बाद एकदम आलोक हम दोनों के साथ क्लर्क की सीट गए और क्लर्क से पूछा कि क्या उसने पैसे लिए. क्लर्क ने इनकार किया. तो आलोक ने क्लर्क की जेब की तलाशी ली और वो बीस रुपये के नोट बरामद कर लिए. क्लर्क को तुरंत गिरफ्तार कर लिया गया. सब कुछ क्षणों में हो गया. मैंने तब आलोक से पूछा कि अब क्या होगा. उसपर आलोक ने कहा अब आगे का काम ठाकुर चेत राम करेंगे. ठाकुर चेत राम उस समय धर्मशाला में सैशन जज थे. शायद इस किस्म के मुकद्दमे उस वक्त सैशन जज के पास जाते थे.

       उसके बाद साल भर केस चला. ठाकुर चेत राम ने क्लर्क को दो साल की जेल की सजा दे दी. सुना था कि उस क्लर्क ने सैशन जज के फैसले के खिलाफ ऊपरी अदालत में अपील भी की थी जो खारिज हो गयी थी और उस क्लर्क को बीस रुपये की रिश्वत के लिए दो साल कड़ी जेल भुगतनी ही पडी थी.

       आज के भारत में जहां अब करोडो अरबों के घपले और रिश्वत काण्ड हो रहे हैं क्या कोइ विश्वास करेगा कि कहीं 6-7 हज़ार के घपले या बीस रुपये की रिश्वत के बदले भी जेल जाना पड़ सकता है और वो भी अपराध करने के दो साल के अन्दर. 

       काश देश में आज भी ऐसा हो पाता.
*केंचुओं के जीवनचक्र से संबंधित जानकारियाँ*

*केंचुओं के जीवनचक्र से संबंधित जानकारियाँ*



*1.* केंचुए द्विलिंगी (Bi-sexual or hermaphodite) होते हैं अर्थात एक ही शरीर में नर (Male) तथा मादा (Female) जननांग (Reproductive Organs) पाये जाते हैं।
*2.* द्विलिंगी होने के बावजूद केंचुओं में निषेचन (Fertilization) दो केंचुओं के मिलन से ही सम्भव हो पाता है क्योंकि इनके शरीर में नर तथा मादा जननांग दूर-दूर स्थित होते हैं और नर शुक्राणु (Sperms) व मादा शुक्राणुओं (Ovums) के परिपक्व होने का समय भी अलग-अलग होता है। सम्भोग प्रक्रिया पूर्ण होने के बाद केंचुए कोकून बनाते हैं। कोकून का निर्माण लगभग 6 घण्टों में पूर्ण हो जाता है।
*3.* केंचुए लगभग 30 से 45 दिन में वयस्क (Adult) हो जाते हैं और प्रजनन करने लगते हैं।
*4.* एक केंचुआ 17 से 25 कोकून बनाता है और एक कोकून से औसतन 3 केंचुओं का जन्म होता है।
*5.* केंचुओं में कोकून बनाने की क्षमता अधिकांशतः 6 माह तक ही होती है। इसके बाद इनमें कोकून बनाने की क्षमता घट जाती है।
*6.* केंचुओं में देखने तथा सुनने के लिए कोई भी अंग नहीं होते किन्तु ये ध्वनि एवं प्रकाश के प्रति संवेदनशील होते हैं और इनका शीघ्रता से एहसास कर लेते हैं।
*7.* शरीर पर श्लैष्मा की अत्यन्त पतली व लचीली परत मौजूद होती है जो इनके शरीर के लिए सुरक्षा कवच का कार्य करती है।
*8.* शरीर के दोनों सिरे नुकीले होते हैं जो भूमि में सुरंग बनाने में सहायक होते हैं।
*9.* केंचुओं में शरीर के दोनों सिरों (आगे तथा पीछे) की ओर चलने (Locomotion) की क्षमता होती है।
*10.* मिट्टी या कचरे में रहकर दिन में औसतन 20 बार ऊपर से नीचे एवं नीचे से ऊपर आते हैं।
*11.* केंचुओं में मैथुन प्रक्रिया लगभग एक घण्टे तक चलती हैं।
*12.* केंचुआ प्रतिदिन अपने वजन का लगभग 5 गुना कचरा खाता है। लगभग एक किलो केंचुए (1000 संख्या) 4 से 5 किग्रा0 कचरा प्रतिदिन खा जाते हैं।
*13.* रहन-सहन के समय संख्या अधिक हो जाने एवं जगह की कमी होने पर इनमें प्रजनन दर घट जाती है। इस विशेषता के कारण केंचुआ खाद निर्माण (Vermi-composting) के दौरान अतिरिक्त केंचुओं को दूसरी जगह स्थानान्तरित (Shift) कर देना अत्यन्त आवश्यक है।
*14.* केंचुए सूखी मिट्टी या सूखे व ताजे कचरे को खाना पसन्द नहीं करते अतः केंचुआ खाद निर्माण के दौरान कचरे में नमीं की मात्रा 30 से 40 प्रतिशत और कचरे का अर्द्ध-सड़ा (Semi-decomposed) होना अत्यन्त आवश्यक है।
*15.* केंचुए के शरीर में 85 प्रतिशत पानी होता है तथा यह शरीर के द्वारा ही श्वसन एवं उत्सर्जन का पूरा कार्य करता है।
*16.* कार्बनिक पदार्थ खाने वाले केंचुओं का रंग मांसल होता है जबकि मिट्टी खाने वाले केंचुए रंगहीन होते हैं।
*17.* केंचुओं में वायवीय श्वसन (Aerobic Respiration) होता है जिसके लिए इनके शरीर में कोई विशेष अंग नहीं होते। श्वसन क्रिया (गैसों का आदान प्रदान) देह भित्ति की पतली त्वचा से होती है।
*18.* एक केंचुए से एक वर्ष में अनुकूल परिस्थितियों में 5000 से 7000 तक केंचुए प्रजनित होते हैं।
*19.* केंचुए का भूरा रंग एक विशेष पिगमेंट पोरफाइरिन के कारण होता है।
*20.* शरीर की त्वचा सूखने पर केंचुआ घुटन महसूस करता है और श्वसन (गैसों का आदान-प्रदान) न होने से मर जाता है।
*21.* शरीर की ऊतकों में 50 से 75 प्रतिशत प्रोटीन, 6 से 10 प्रतिशत वसा, कैल्शियम, फास्फोरस व अन्य खनिज लवण पाये जाते हैं अतः इन्हें प्रोटीन एवं ऊर्जा का अच्छा स्रोत माना गया है।
*22.* केंचुओं को सुखा कर बनाये गये प्रतिग्राम चूर्ण (Powder) से 4100 कैलोरी ऊर्जा मिलती है।
फ्रूट सैटिंग के बाद कैल्शियम नाइट्रेट के साथ सौ ग्राम मैगनीशियम

फ्रूट सैटिंग के बाद कैल्शियम नाइट्रेट के साथ सौ ग्राम मैगनीशियम



फ्रूट सैटिंग के बाद कैल्शियम नाइट्रेट के साथ सौ ग्राम मैगनीशियम मिलाने से प्रकाश संश्लेषण अच्छा होता है। क्योंकि मैगनीशियम पत्तियों में क्लोरोफिल को बढ़ाता है। बागीचे में पाउड्रीमिलड्री की परेशानी को दूर करने के लिए माइक्रोबुटानिल की स्प्रे की जानी चाहिए। मई महीने में माइट पर नियंत्रण के लिए 200 लीटर पानी में डेढ़ से दो लीटर समर ऑयल की स्प्रे जरूर करें। इससे माइट का खतरा टल जाता है। इस स्प्रे से प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया तेज होती है।
सेब के पौधे में एक्टीवेटर का काम करता है जिंक

सेब के पौधे में एक्टीवेटर का काम करता है जिंक




सेब के पौधों के लिए जिंक एक अति आवश्यक सुक्ष्म पोषक तत्व है। साल में दो बार सेब के पौधों पर स्प्रे अति आवश्यक है। पहले चरण में पिंक बडड् OR AFTER SETTING पर, दूसरी सेब तुड़ान के बाद करनी चाहिए। बागवान सुप्तावस्था के समय जिंक सल्फेट और पिंक बडड्- AFTER SETTING के समय चिलैटिड जिंक रूप में की स्प्रे द्वारा कर पूरा कर सकते है। पौधों में जिंक की कमी को किसी अन्य रसायनों द्वारा भी पूरा किया जा सकता है। सेब के पौधों में बडड् ब्रेक से लेकर फ्रूट सेट का समय जिंक जैसे सुक्ष्म तत्व के हिसाब सें महत्वपूर्ण माना जाता है। जिंक की कमी फल देने वाले पौधों में फ्रूट सैटिंग कां प्रभावित कर सकती है। जिंक का प्रयोग सर्दीयों में मिटटी में डाल कर भी किया जा सकता है। लेकिन माना जाता है कि इस सुक्षम तत्व को पौधे में पहुचनें के लिए पौधे में पत्तियां होना जरूरी है। अगर ऐसा नहीं है तो पौधा इस सुक्ष्म तत्व को प्राप्त नहीं कर सकता है। पत्ते आने के बाद अगर स्प्रे की जाए तो वे ज्यादा फायदेमंद है
ये रही  2018  की  स्प्रे  सरणी सेब के बगीचों के लिए || Himachal Pradesh

ये रही 2018 की स्प्रे सरणी सेब के बगीचों के लिए || Himachal Pradesh

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बागीचों में न करें कीटनाशक की स्प्रे

बागीचों में न करें कीटनाशक की स्प्रे



बागवान बागीचों में इस समय धड़ल्ले से कीटनाशकों की स्प्रे कर रहे हैं।
यह गलत है। इस समय कीटनाशकों की स्प्रे नहीं की जानी चाहिए। कारण यह है
कि फ्रूट सैटिंग में कीटनाशकों की स्प्रे का कोई रोल नहीं है। आज से पांच
या छह साल पहले जो कीटनाशकों की स्प्रे की जाती थी, वो फूलों में थ्रिप्स
की अधिक संख्या होने के कारण की जाती थी। वह स्प्रे थ्रिप्स को कंट्रोल
करने के लिए होती थी। पिछले कुछ सालों में वातावरण इन दिनों यानी मार्च
अप्रैल में सर्द ही चल रहा है। ऐसे में थ्रिप्स ऑटोमेटिकली कंट्रोल हो गए
हैं। इस समय जो बागवान कीटनाशकों की स्प्रे कर रहे हैं, उससे मित्र कीट नष्ट
हो रहे हैं। इससे माइट व सेंजो स्केल पनप रहा है।
कीट विज्ञानी डॉ. सुषमा भारद्वाज का कहना है कि इस समय
कीटनाशकों की स्प्रे जरूरी नहीं है। पिंक बड पर तो यूं भी कीटनाशकों की
स्प्रे नहीं करनी चाहिए। बागवानी विशेषज्ञ भी इस समय कीटनाशकों की स्प्रे
को रिकमंड नहीं करते हैं। यदि इस समय कीटनाशकों की स्प्रे की जाए तो उससे
मित्र कीट नष्ट होते हैं और माइट व सेंजो स्केल पनपता है।
पॉलीनेशन की जानकारी सही, तो सेब की सेटिंग बंपर

पॉलीनेशन की जानकारी सही, तो सेब की सेटिंग बंपर



परागण प्रक्रिया को मदद करने में यह क डाईप्टोरा, हाईमिनोप्टेरा, लेपीडोप्टेरा, कोलियोप्टेरा और थाईसेनाप्टोरा सहायक है। बागवानों में पॉलीनेशन के प्रति जानकारी होना सेब व चैरी अच्छी पैदावार के लिए जरूरी है। मधुमक्खियों और अन्य कीटों से किये जाने वाले पॉलीनेशन से बादाम और सेब के पैदावार में 20 से 25 और चैरी में 15 प्रतिशत तक की बढ़ोतरी की जा सकती है। कुल्लु घाटी में फल उत्पादन में देसी मधुमक्खी एपिस सिराना का महत्वपुर्ण योगदान देखा गया है, जबकि विदेशी मधुमक्खी एपिस मेलीफेरा परायह मधुमक्खी कम तापमान में भी पॉलीनेशन करने मेें सहायक है। पॉलीनेशन सही न होने से फलों का आकार छोटा और टेढ़ा-मेढ़ा होता है। तापमान 21 डिग्री सेल्सियस के आस पास हो तो मधुमक्खियों पॉलीनेशन प्रक्रिया बहुत अच्छी होती है।
बागीचों से हटांए अनचाह घास
बागीचों में मधुमक्खियां रखी जाएं तो फूलदार पौधे जैसे मूली और सरसों आदि नहीं होने चाहिए। ऐसा होने पर मक्ख्यिों इन फूलों पर चली जाएंगी, जिससे सेब में का परागण प्रक्रिया प्रभावित होगी ।
मधुमक्खियों स्थान बदलना होगा नुक्सानदायक
मधुमक्खियों के बक्से को एक दिन में एक से दूसरी जगह नहीं ले जाना चाहिए ऐसा करने से मधुमक्खियां पुराने स्थान आएगी और बक्सा न मिलने पर यह मर सकती है। इसलिए मधुमक्खियों बक्से को एक दिन में एक मिटर से अधिक दूरी पर नही ले जाना चाहिए ।
बागीच में करें पानी की व्यवस्था
बागीचे में जब बागवान मधुमक्खियों के बक्से रख लें, उसके बाद कीटनाशकों का छिडक़ाव न करें। मधुमक्खियों को अपने शरीर का तापमान बनाने और अंडशावकों को पैदा करने के लिए पानी की जरूरत होती है। ऐसे में मधुमक्खियां पानी की तलाश में भटकती है। बागवानों को चाहिए कि वे बक्सों के साथ ही साफ पानी रखें ।
मधुमक्खियों को बागीच में रखने के कुछ सुझाव
पांच बीघे में मधुमक्खियों का तीन बॉक्स लगाना जरूरी है। बक्से कम हवा और अधिक धुप वाले स्थान पर होने चाहिए। मधुमक्खियों की संख्या को मापने के लिए दो से तीन मक्खियां फूल के झुुुुंड पर मंडऱाती नजर आए तो समझ लेना चाहिए बक्से में पर्याप्त मौनवंश है। कम से कम 10 पेड़ों पर एक दिन में जांच करें। पुराने बागीचे में अच्छे पॉलीनेशन के लिए कम से कम 20 मधुमक्खियां प्रति पेड़ प्रति मिनट की दर से मंडऱानी चाहिएं। सेटिंग के दौरान कम से कम 25 फलों को चुनें और इन्हें काट कर इनके बीज गिने। यदि 5-6 से कम बीज हों तो पॉलीनेशन सही नहीं हुआ है।
को-रॉट के लिए समय पर करे स्प्रे

को-रॉट के लिए समय पर करे स्प्रे

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हिमाचल में इसकी पैदावार 6 से 9 टन प्रति हैक्टेयर है, विश्व के अग्रणी सेब उत्पादक देश न्यूलीलैंड, चीन, जापान, अमेरीका, और आस्ट्रेलिया आदि में यह 30-40 टन प्रति हैक्टेयर के करीब है। कम पैदावार के पीछे विभिन्न प्रकार के रोग और प्रूनिंग की पुरानी तकनीक भी कारण रहा है। वहीं कोर रॉट रोग भी सेब की पक्की फसल के आंकड़े को नीचे गिराने का काम करता है। ऐसा रोग है जून से लेकर फल तुड़ान के बीच भारी ड्रापिंग होती है। रोग के प्रभाव से हानि का यह प्रतिशत 5 से 25 के बीच रहता है, इससे बागवानों को भारी आर्थिक क्षति होती है। कोर रॉट से प्रभावित फल स्टोर के समय सड़ जाते हैं। कोर रॉट के फफंूद हमेशा सेब के रोगग्रस्त पत्तों, फलों और टहनियों पर जीवित रहते है। फफंूद मार्च-अप्रैल माह मे फूल से पंखुडीपात की अवस्था में विभिन्न भागों पर पनपकर इन्फेकशन पैदा करता है। वर्ष समय अधिक हो सकती क्योंकि फ्लाविरंग पर बारिश और अधिक नमी होने से कोर रॉट फैलने की संभावना ज्यादा रही है। इसलिए बागवान इस साल इस बीमारी को लेकर ज्यादा सजक रहें। जहां बागवान को-रॉट या दाने के बीज सडऩे की समस्या से जूझ रहे हों, वहां पिंक और फूल झडऩे के बाद 200 लीटर पानी में 600 ग्राम डायथिन प्लस, 100 ग्राम बैवेस्टियन या 35 मिलीलीटर स्कोर के मिश्रण की स्प्रे कर इस परेशानी को दूर कर सकते हैं। के समय अगर मौसम नमी वाले रहे तो सेब में को-रॉट की संभावना अधिक रहता है। जो सेब के बागीच जंगल के साथ लगते है वहीं नीम के कारण यह समस्या अधिक हो सकती है। फ्लावरिंग के समय अधिक बारिश और नमी कर वजह से दाने का बीज के फ्रंगस की चपेट में आने फल समय से पहले मैच्यूर होने पहले गिर जाता है। दाने गिरने का कारण को-रॉट है जिस की वजह से बीज सड़ जाता है और टहनी पर लगा फल गिर जाता है। ध्यान रहे लोअर बेल्ट जैसी ही फल में क्लर की स्प्रे करेंगे । वैसे ही को-रॉट चपेट में आए दाने गिरने शुरू हो जाएंगे। पिंक बड स्टेज पर 200 लीटर पानी में 600 ग्राम डायथिन प्लस, 100 ग्राम बैवेस्टियन या 35 मिलीलीटर स्कोर के मिश्रण की स्प्रे कर इस परेशानी को दूर कर सकते हैं। बागवान 30 फीसदी फ्लावरिंग में 50 एम एल स्कोर 200 लीटर पानी में मिलाकर स्प्रे कर सकतें है। इसें बाद फ्रूट सैटिँग के बाद भी यही स्प्रे कर सेते हैं।



पराग कणों को ब्रश से लगाना थोड़ा कठिन कार्य है। पराग कोषों यानी एन्थर्स को एकत्र कर कपड़े में लपेट कर उन्हें ओवन में 20 डिग्री सेल्सियस तापमान में रखा जाता है। एक दिन बाद ही उनमें परागकण निकल जाते हैं। इन्हें ब्रश की सहायता से हर चौथे बीमें में लगा देने से फसल में बढ़ोतरी होती है। यह देखा गया है कि यदि फूल आने के समय मौसम अधिक ठंडा और गर्म हो तो परागकण किस्मों में पर्याप्त मात्रा में फूल लगने के बावजूद फसल बहुत कम लगती है। सफल परागकण के लिए फूल खिलने के दौरान उचित तापमान का होना जरूरी है। अक्सर यह देखा गया है कि कम तापमान में परागण और निशेचन क्रिया पूरा होने में अधिक समय लेती हैं। उदाहरण के तौर पर 8 डिग्री सेल्सियस पर इस क्रिया को पूरा करने में 216 घंटे लगते हैं, जबकि 15 डिग्री सेल्सियस तापमान पर यह किया केवल 48 घंटों में हो जाती हैं। फूल लगने से पहले इसका मजबूत होना जरूरी है ताकि वह तापमान के उतार-चढ़ाव को सहन करने की क्षमता रख सके। इसके लिए पौधे की हरी कली अवस्था पर यूरिया 0.5, बोरीक एसिड 0.1 प्रतिशत ओर अन्य बलवर्धक हार्मोन एवं पोषक तत्वों का छिडक़ाव करना चाहिए। परागनलिका की बढ़ोतरी में बोरीक एसिड अहम भूमिका निभाता है।
naitrogen की कमी को पूरा करने क्या उपाय हैं

naitrogen की कमी को पूरा करने क्या उपाय हैं

यूरिया 0.5 प्रतिशत (1 कि.ग्रा./200 ली.पानी) के दो छिडक़ाव फूलों की पंखुडिय़ां झडऩे पर और इसके एक महीना पश्चात करने से नत्रजन की कमी को दूर किया जा सकता है।
सेब के पौधे में नत्रजन की कमी के क्या लक्षण है?
सेब के पौधों के लिए नत्रजन सबसे आवश्यक तत्व है। नत्रजन की कमी से पत्तों का रंग पीला हो जाता है। वृद्धि कम हो जाती है। पत्तों का आकार छोटा होता है। वृद्धि कम होने से नई शाखाएं छोटी और पतली रह जाती हैं। फलों का आकार छोटा और उत्पादन क्षमता कम हो जाती है।
पोलीनेशन सही तो फल शानदार

पोलीनेशन सही तो फल शानदार





 छोटे-छोटे प्राणी जैसे मधुमक्खियां, तितलियां आदि बड़े-बड़े काम करती हैं बाग को संवारने के लिए। यह सब पोलीनेशन के तहत आता है। यदि पोलीनेशन सही हो तो फल की क्वालिटी को शानदार होने से कोई नहीं रोक सकता। बागवानों को सही पोलीनेशन प्रक्रिया के विभिन्न पहलुओं के बारे में पूरी जानकारी होनी चाहिए। साथ ही पोलीनाइजर किस्मों का भी बाखूबी पता होना चाहिए। आखिर तीन हजार करोड़ रुपए से अधिक का सेब साम्राज्य जिन पहलुओं पर टिका है, उनमें पोलीनेशन का अहम रोल है।
हिमाचल में पॉलीनाइजर किस्मों की कमी एक ऐसा कारण है, जिससे बागवानी प्रभावित होती है। राज्य में 70 प्रतिशत बागीचों में रेड गोल्ड और गोल्डन जैसी किस्में परागण कर्ता किस्में हैं। यदि शानदार उत्पादन लेना हो तो बागीचे में कम से कम चार से पांच पॉलीनाइजर होने चाहिए। इनमें सेल्फ पोलीनाइजर किस्मों में गेल गाला, स्कारलेट गाला, मिशल गाला, ब्रुकफील्ड गाला, रेडलम गाला, रॉयल गाला जैसी किस्में शामिल हैं। यदि इनकी संख्या बागीचे में अधिक हो तो ये पोलीनेशन का काम भी करती हैं। इनकी मौजूदगी से बागीचे में पोलीनेशन सही होता है। ये नियमित क्रॉप बियरर भी हैं। इस तरह इनका दोहरा लाभ है। दूसरी तरफ गोल्डन व रेड गोल्ड किस्मों को मार्केट में सही दाम नहीं मिलता। गाला किस्मों की इस समय मार्केट में अच्छी मांग है। ऐसे में बागवानों को इनसे दोहरा लाभ कमाना चाहिए। इसके अलावा परागण किस्मों में जिंजर गोल्ड, पिंक लेडी, विंटर बनाना, समर क्वीन, टाइडमैन व ग्रेनी स्मिथ जैसी किस्में शामिल हैं।
हिमाचल प्रदेश में सही पोलीनेशन न होने से उत्पादन प्रभावित होता है। इस समय प्रदेश में एक हैक्टेयर क्षेत्र में सेब का औसतन उत्पादन 5 टन है। वहीं कश्मीर में प्रति हैक्टेयर पैदावार 11 टन के करीब की है। इस अंतर के पीछे भी काफी हद तक कम पोलीनेशन जिम्मेदार है। कश्मीर में तकनीक हिमाचल से पीछे है, लेकिन वहां बागीचों में क्रॉस पोलीनेशन के कारण उत्पादन अधिक है। हिमाचल प्रदेश में डिलीशयस किस्मों की अधिकता है। यहां ये किस्में 85 प्रतिशत हैं, जबकि जम्मू-कश्मीर में 30 और उत्तराखंड में 35 फीसदी हैं।
अब पोलीनेशन के दूसरे पहलू पर आते हैं। छोटे-छोटे कीट जैसे मधुमक्खी व तितली परागण में महत्वपूर्ण हैं। हिमाचल में परागण के लिए मधुमक्खियों की कमी है। बागवानों को बागीचों में मधुमक्खियों की कमी को पूरा करने के लिए इनके बॉक्स लगाने चाहिए। बॉक्स एक ही स्थान पर लगाने चाहिए। अगर इन्हें बदलना हो तो पास-पास न बदलें। परागण के लिए इनकी भूमिका को पहचानना जरूरी है। मधुमक्खियां पानी के लिए काफी दूर जाती है। पानी उन्हें मौके पर ही उपलब्ध हो, इसका इंतजाम करना चाहिए। ऐसा करने से पोलीनेशन सही होता है। एक बात का और ध्यान रखना चाहिए। वो ये कि बागीचे के आसपास सरसों नहीं होनी चाहिए। ऐसे में मक्खी सरसों के फूल के प्रति आकर्षित होती है। इससे पोलीनेशन प्रभावित होता है। एक गलतफहमी बागवानों को मीठे के छिडक़ाव को लेकर है। बागीचे में इसकी जरूरत नहीं है। मधुमक्खियां पौधों के आसपास रहें, इसकी तरफ ही अधिक ध्यान रखना चाहिए।
इंटरनेशनल मार्केट में जिस किस्म की भारी डिमांड है, उसका नाम ग्रेनी स्मिथ है। ग्रेनी स्मिथ की पोलीनेशन में अहम भूमिका है। इसका फूल पौधे में अधिक समय तक रहता है। इससे पोलीनेशन की प्रक्रिया सहज हो जाती है। यदि बागवान गोल्डन किस्म की जगह इसे लगाएं तो अच्छी आमदनी होगी।
पोलीनेशन में इसके अलावा वायु, पानी और कीटों का रोल भी है। सेब के अलावा नाशपाती, चैरी, फूलगोभी, बंदगोभी, सरसों, सूरजमुखी और नींबू प्रजातीय फसलों में भी पॉलीनेशन कीटों के जरिए होता है। परागण के लिए फूलों का एक समय पर खिलना, कीट की मौजूदगी और अनुकूल वातावरण जरूरी है। यदि इनमें से किसी एक की कमी हो तो पैदावार पर असर पड़ता है। परागण प्रक्रिया में सहायक कीटों में डाईप्टेरा, हाईमिनोंप्टेरा, लेपीडोप्टेरा, कोलियोप्टेरा और थाईसेनाप्टेरा शामिल हैं। मधुमक्खियों से होने वाले परागण से बादाम और सेब के उत्पादन में 20 से 15 और चैरी में 15 प्रतिशत तक की बढ़ोतरी की जा सकती है। कुल्लू घाटी मेंं देसी मधुमक्खी एपिस सिराना का महत्वपूर्ण योगदान है। विदेशी मधुमक्खी एपिस मेलीफेरा भी बेहतर परागण कीट है। यह मधुमक्खी कम फूलों से भी गुजारा कर सकती और कम तापमान में भी कार्य करती है।
बागीचे में मधुमक्खियों की परागण के लिए पर्याप्त संख्या की जांच कैसे करें

बागीचे में मधुमक्खियों की परागण के लिए पर्याप्त संख्या की जांच कैसे करें





एक शांत दिन में दिन के 11 से 3 बजे े बीच डिब्बे के द्वार पर मधुमक्खियों की आवाजाही की जांच करनी चाहिए। यदि झुंड ताकतवर होता तो 50-100 मधुमकिखयां प्रति मिनट आती जाती दिखाई देगीं। कमज़ोर झुंड में केवल 10-20 मधुमक्खियां नज़र आएगीं।
बोरिक एसिड का प्रयोग क्यों किया जाता है, विस्तार से बताएं

बोरिक एसिड का प्रयोग क्यों किया जाता है, विस्तार से बताएं





बोरिक एसिड एक सुक्ष्म तत्व है जिसकी कमी से पौधों में विभिन्नन प्रकार के लक्षण आते हैं। लेकिन इसका प्रयोग सेब में दूरसरे उद्देश्य से किया जा रहा है जिसमें बोरिक ऐसड का छिडक़ाव गुलाबी कली पर किया जाता है। इससे दो फायदे होते हैं जैसे यह मौसम के प्रभाव को ठीक रखता है और अच्छी फल की सेटिंग होती है, दूसरा इसके प्रभाव से परागनली ज्यादा देर तक खुली रहती है जिससे निषेचन का समय बढ़ जाता है और अच्छी फल की सेटिंग होती है। खुश्क मौसम में बोरोन तत्व की कमी अक्सर फलों पर विभिन्न लक्षणों के रूप में पाई जाती है। मिटटी में इस तत्व की कमी के कारण छोटी-छोटी टहनियों पर छोटे-छोटे फोड़े जिन्हें मीजलस कहते हैं प्रतिकूल मिट्टी से सम्बन्ध पाया गया है। इससे बोरोन को मिट्टी में डालने से कुछ सालों तक ठीक किया जा सकता है। खुश्क मौसम में बोरिक एसिड का छिडक़ाव किया जा सकता है लेकिन इसका प्रभाव लक्षण को ठीक करने में ज्यादा उपयोगी नहीं होता है
फलों में रंग लाना और शीघ्र फल पकाना

फलों में रंग लाना और शीघ्र फल पकाना

सेब तुड़ान से 20 दिन पहले 200 लीटर पानी में सौ ग्राम चिलेटिड कैल्शियम प्लस, 500 amifol K की दो स्प्रे करने से सेब का कलर अच्छा आता है और क्वालिटी भी बेहतर होती है। सेब में रंग न आने की समस्या पर तुड़ान से तीस दिन पहले 300 ग्राम पोटाशियम नाइट्रेट हर पौधे के तौलिए में डाल सकते हैं। इससे रंग भी आता है और साइज भी बेहतर होता है। ऐसा पाया गया है कि कम उंचाई वाले इलाकों में तापमान गर्म होनेसे फल पकने पर भी उनका रंग बेहतर नहीं आता। ऊंचाई वाले इलाकों में फलों पर अच्छा रंग आता है। ऊंचे इलाकों में फल जल्दी पकाने और मध्यम ऊंचाई वाले इलाकों में फलों पर रंग लाने के लिए 200 लीटर पानी में 500-600 मिलीलीटर इथरल घोल कर उसका छिडक़ाव करें। इस घोल में 45 मिलीटर प्लेनोफिक्स मिलाना भी आवश्यक है। इससे फल झडऩे की परेशानी दूर होती है। कुछ इलाकों में इथरल के प्रयोग से नुकसान हुआ है। इथरल के प्रभावी साबित न होने से बागवानी विभाग भी इसके प्रयोग को हतोत्साहित कर रहा है। जिन क्षेत्रों में फल में कम रंग आने की समस्या पेश आए, वहां बागवानों को तुड़ान से पच्चीस दिन पहले डेढ़ किलो 0:0:50 (पोटाश) और इतनी ही मात्रा में पोटाशियम नाइट्रेट को 200 लीटर पानी में घोलकर स्प्रे करनी चाहिए। यदि बागीचे में रंग कम आने की दिक्कत अधिक हो तो बागवानों को तुड़ान से एक माह पूर्व तौलिओं में 300 से 400 ग्राम पोटाशियम नाइट्रेट डालना चाहिए। इससे फलों में अच्छा रंग आता है।
जड़ों पर लगे वूली एफिड को कैसे नियंत्रित किया जा सकता है?

जड़ों पर लगे वूली एफिड को कैसे नियंत्रित किया जा सकता है?


इन कीटों के लिए अप्रैल से अगस्त तक कीटनाशक का प्रयोग न करें। फल उतारने के बाद तने और टहनियों पर लगे वूली एफिड पर सिस्टमैटिक कीटनाशक का प्रयोग करें। फल उतारने के बाद जड़ों में लगे वूली एफिड को नियंत्रित करने के लिए क्लोरोफासरीफॉस नामक कीटनाशक 400 मिलीलीटर 200 लीटर पानी में घोल बनाकर एक तौलिए में 25-30 लीटर घोल डालें। घोल तने के चारों और घेरे में डालें। बरसात के एकदम बाद जब भूमि में पर्याप्त नमी हो तो कीटनाशक का घोल डालना अति उत्तम है। ऐसे में घोल नमी होने से जमीन के भीतर संक्रमित भाग तक आसानी से पहुंच जाता है
हिमाचल में वूली एफिड का प्रकोप काफी है, यहां किस तरह का प्लांट मैटीरियल लगाना चाहिए?
हिमाचल में बीजू मूलवृन्त सबसे ज्यादा वूली एफिड की चपेट में है। वो चाहे छोटा पौधा हो या बड़ा। यदि मलिंग-मार्टिन मूलवृन्त लगाया जाए तो वूली एफिड के प्रकोप से बचा जा सकता है। इस रूट स्ऑक में वूली एफिड के प्रति अवरोधक क्षमता होती है। मलिंग-मार्टिन सीरीज में 106 और 111 अच्छे रूट स्टॉक हैं।
बिंग

बिंग



इस किस्म की चैरी के फल लाल रंग के होते हैं। पकने पर यह काले हो जाते हैं। इन्हें देर तक रखा जा सकता है। यह किस्म डिब्बा बंदी के लिये भी सही है। बारिश में इसके फल फट जाते हैं।
नैपोलियन

नैपोलियन





इस किस्म की चैरी में फल सख्त, हल्के रंग के तथा सफे द गूदे वाले होते हैं। यह किस्म भी डिब्बा बंदी के लिए अच्छी है।
सैम

सैम





इसके फल लाल रंग के तथा लैंबर्ट किस्म के आकार के होते है। बिंग, लैंबर्ट व नैपोलियन किस्मों के परागण के लिए यह अच्छी किस्म है। यह डिब्बा बंदी के लिए भी ठीक है।
लैंबर्ट

लैंबर्ट





इसके फल बैंगनी लाल तथा नुकीले आकार के होते हैं जो वर्षा गतु आने पर फट जाते हैं। जहां पर बसंत के मौसम में अधिक पाला पड़ता हा, वहां के लिए यह उपयुक्त किस्म है।
एंपरर फ्रांसिस

एंपरर फ्रांसिस



इसमें फल बहुत बड़े आकार के गहरे लाल रंग के होते है। इन्हें शीत गृह में काफी समय तक रखा जा सकता है। यह देर से पकने वाली किस्म है जो मई के तीसरे हफ्ते में तैयार होती है। डिब्बा बंदी के लिए भी अच्छी किस्म है।
अर्ली रिवर्स

अर्ली रिवर्स


इसमें फलों का आकार बड़ा व त्वचा का रंग काला होता है। फल बहुत रसदार, स्वाद से भरपूर अच्छे होते हैं। इसमें फल मई के पहले हफ्ते में पकते हैं।
ब्लैक हार्ट

ब्लैक हार्ट







फल औसत आकार वाले होते हैं, त्वचा पतली तथा काले रंग की होती है। खाने में स्वादिष्ट तथा खुशबूदार, गुद्दा मुलायम व रसदार होता है। फल मई के पहले सप्ताह में पकते हैं। इसके अलावा स्टैला तथा लैपिनस ऐसी किस्में हैं, जो स्वयं फलित हैं। स्टैला के फल सख्त काले रंग के तथा बड़े आकार के होते हैं।
प्रदेश में अधिकतर पौधे रेड हार्ट तथा ब्लैक हार्ट किस्मों के लगे हुए हैं, लेकिन अभी तक इसकी बागवानी व्यवसायिक स्तर पर नहीं हो रही है। ब्लैक हार्ट एक कमर्शियल किस्म है। इसकी बाजार में अच्छी कीमत मिल जाती है। रेड हार्ट, जिसके फल लाल रंग के तथा कुछ खट्टे होते हैं, की अच्छी कीमत नहीं मिलती, लेकिन फिर भी परागण के लिए इन्हें लगाया जाता है।
मर्चेंट किस्म

मर्चेंट किस्म

इसका फल मध्यम आकार का होता है। इसका छाल काली होती है। इस किस्म में हैवी क्रापिंग होती है। इसकी खासियत यह है कि इसका परागण किसी भी प्रजाति से आसानी से हो जाता है। यह किस्म भी अन्य किस्मों को पोलीनाइज कर सकती है। इसका पौधा मध्यम ऊंचाई वाला और अधिक फैलावदार होता है। इस किस्म को कैंकर आसानी से नहीं घेर पाता।
ड्यूरोनेरो-1

ड्यूरोनेरो-1

यह चैरी की स्वादिष्ट किस्म है। इस किस्म में काफी उत्पादन होता है। इसके फल आकार में अन्य किस्मों से बड़े होते हैं और इनकी लंबाई-चौड़ाई लगभग एक समान होती है। यह किस्म करीब 55 से 65 दिनों के भीतर पक कर तैयार हो जाती है। हिमाचल में इस किस्म का व्यवसायिक तौर पर काफी उत्पादन हो रहा है।
ड्यूरोनेरो-2

ड्यूरोनेरो-2

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इस किस्म के फल भी पहली किस्म की तरह ही बड़े अकार के होते हैं। यह किस्म 75 दिन के आसपास तैयार होती है, क्योकि इसमें फूल अन्य किस्मों के मुकाबले कुछ देरी से आते हैं। इस किस्म की चैरी का गुद्दा सख्त लेकिन रसीला होता है।
ड्यूरोनेरो-3

ड्यूरोनेरो-3

इस किस्म की शैल्फ लाइफ काफी मजबूत होती है, इसलिए इसे दूर की मंडियों में भी आसानी से भेजा जा सकता है। ड्यूरोनेरो सीरीज की अन्य किस्मों की तरह इसका पौधा भी बड़ा और फैलावदार बनता है। यह किस्म भी 75 दिनों के करीब तैयार हो जाती है। इसके फलों की छाल गहरे लाल रंग की होती है।
रैगिना

रैगिना

यह किस्म 75-80 दिनों में तैयार होती है। इसकी उत्पादन क्षमता काफी अधिक है। इसका फल गहरे लाल रंग का होता है। इसके फल भी देरी से पकते हैं, लेकिन इसमें मिठास और रस अधिक होता है। इसका पौधा शंकु के आकार में बढ़ता है, जिसकी टहनियां झुकी हुई होती हैं।
वैन

वैन

इस किस्म के पौधे मध्यम से बड़े आकार के होते हैं, जिनमें हैवी क्रॉप लगती है। हालांकि इसके फलों का आकार अपेक्षाकृत कम होता है। इसके फल की डंडी छोटी रहती है, जिससे इसे तोडऩे में मुश्किल आती है। यह किस्म 60 से 65 दिनों के भीतर पक कर तैयार हो जाती है।
स्टैला

स्टैला

स्टैला किस्म में फल उत्पादन के लिए किसी अन्य परागण प्रजाति की जरूरत नहीं होती है। यह संकर किस्म है और इसके फल बड़े और गहरे रंग के होते हैं। यह किस्म भी 60 से 65 दिनों के भीतर तैयार हो जाती है। इसका पौधा भी सीधा ऊपर की ओर बढ़ता है।
सनबस्र्ट

सनबस्र्ट

यह किस्म भी बिना किसी परागण के फल पैदा करने में सक्षम है। इसे भी वैन और स्टैला से क्रास कर तैयार किया गया है। इसके पौधे मध्यम आकार के फैलावदार होते हैं। इसे 1983 में व्यावसायिक उत्पादन में लाया गया था। यह किस्म करीब 75दनों से पहले तैयार हो जाती है। इसका गुद्दा भी थोड़ा ठोस और स्वाद वाला होता है। अर्ली रिवर्ज: इसके किस्म के पौधे का आकार बड़ा और फैलावदार होता है। फल गोलाकार और लंबे होते हैं। देखने में यह गहरे लाल और कुछ काले होते हैं। यह एक पुरानी अंग्रेजी किस्म है, जिसका गुद््दा नर्म व स्वाद से भरपूर होता है। यह करीब 60 दिनों में तैयार हो जाती है।
बरलैट: इसके पौधे के आकार बड़ा और फैलावदार होता है। इसके फल बड़े और दिल के आकार वाले होते हैं। इसकी छाल लाल और चमकदार होती है। लेकिन इसमें फल फटने की समस्या आ सकती है। यह प्रजाति फ्रांस में विकसित है, जो जल्द और ज्यादा पैदावार के लिए लगाई जाती है। यह एक अर्ली वैरायटी है और करीब 40 दिनों में तैयार हो जाती है।
चैरी दिखने में खूबसूरत फल है और स्वाद में रसीला

चैरी दिखने में खूबसूरत फल है और स्वाद में रसीला

हिमाचल प्रदेश के बागवान चैरी उत्पादन की तरफ झुकाव पैदा कर रहे हैं। पिछले कुछ समय से प्रदेश में चैरी पैदा करने को लेकर बागवानों में उत्साह दिखाई दे रहा है। जिन इलाकों में किन्हीं कारणों से सेब उत्पादन प्रभावित हुआ है, वहां चैरी सफल हो रही है। यहां चैरी की किस्मों पर केंद्रित कुछ जानकारी प्रस्तुत है…
चैरी दिखने में खूबसूरत फल है और स्वाद में रसीला। इसकी मुख्य रूप से दो किस्में हार्ट ग्रुप व राउंड शेप हैं। हार्ट ग्रुप में वह किस्में आती हैं, जिनके फल मुलायम रसदार गुद्दे वाले व हृदयकार होते हैं। इसमें गहरे तथा हल्के रंग वाली दोनों जातियां शामिल हैं। इनका रस लाल तथा लगभग सफेद रंग का होता है। बिगारियो ग्रुप में वह जातियां आती हैं, जिनके फल तुलना में सख्त, क्रिस्पी तथा गोल आकार के होते हैं। कुछ किस्मों के फल हृदयकार के भी होते हैं।
ब्लैक टारटेरियन : इसके फल मध्यम आकार, काले बैंगनी रंग, रसदार तथा मुलायम होते हैं। बिंग तथा लैंबर्ट किस्मों के लिये यह मुख्य परागण किस्म है।
बिंग: इस किस्म की चैरी के फल लाल रंग के होते हैं। पकने पर यह काले हो जाते हैं। इन्हें देर तक रखा जा सकता है। यह किस्म डिब्बा बंदी के लिये भी सही है। बारिश में इसके फल फट जाते हैं।
नैपोलियन : इस किस्म की चैरी में फल सख्त, हल्के रंग के तथा सफे द गूदे वाले होते हैं। यह किस्म भी डिब्बा बंदी के लिए अच्छी है।
स्टू : नैपोलियन किस्म की तुलना में इस चैरी के फल छोटे होते हैं, लेकिन ये स्वाद में मीठे होते हैं।
ब्लैक रिपब्लिकन : फल गहरे लाल रंग के होते हैं। इन्हें देर तक रखा जा सकता है। यह परागण के लिये उपयुक्त किस्म है।
वैन : बिंग, लैंबर्ट व नैपोलियन के परागण के लिए यह उपयुक्त किस्म है। फल मध्यम आकार तथा काले रंग के होते हैं, इनमें बिंग किस्म की तुलना में फटने की कम आशंका होती है। इसके डंठल छोटे होते हैं तथा यह डिब्बाबंदी के लिए उपयुक्त किस्म है।
सैम : इसके फल लाल रंग के तथा लैंबर्ट किस्म के आकार के होते है। बिंग, लैंबर्ट व नैपोलियन किस्मों के परागण के लिए यह अच्छी किस्म है। यह डिब्बा बंदी के लिए भी ठीक है।
लैंबर्ट : इसके फल बैंगनी लाल तथा नुकीले आकार के होते हैं जो वर्षा गतु आने पर फट जाते हैं। जहां पर बसंत के मौसम में अधिक पाला पड़ता हा, वहां के लिए यह उपयुक्त किस्म है।
एंपरर फ्रांसिस : इसमें फल बहुत बड़े आकार के गहरे लाल रंग के होते है। इन्हें शीत गृह में काफी समय तक रखा जा सकता है। यह देर से पकने वाली किस्म है जो मई के तीसरे हफ्ते में तैयार होती है। डिब्बा बंदी के लिए भी अच्छी किस्म है।
अर्ली रिवर्स : इसमें फलों का आकार बड़ा व त्वचा का रंग काला होता है। फल बहुत रसदार, स्वाद से भरपूर अच्छे होते हैं। इसमें फल मई के पहले हफ्ते में पकते हैं।
ब्लैक हार्ट : फल औसत आकार वाले होते हैं, त्वचा पतली तथा काले रंग की होती है। खाने में स्वादिष्ट तथा खुशबूदार, गुद्दा मुलायम व रसदार होता है। फल मई के पहले सप्ताह में पकते हैं।
इसके अलावा स्टैला तथा लैपिनस ऐसी किस्में हैं, जो स्वयं फलित हैं। स्टैला के फल सख्त काले रंग के तथा बड़े आकार के होते हैं।
प्रदेश में अधिकतर पौधे रेड हार्ट तथा ब्लैक हार्ट किस्मों के लगे हुए हैं, लेकिन अभी तक इसकी बागवानी व्यवसायिक स्तर पर नहीं हो रही है। ब्लैक हार्ट एक कमर्शियल किस्म है। इसकी बाजार में अच्छी कीमत मिल जाती है। रेड हार्ट, जिसके फल लाल रंग के तथा कुछ खट्टे होते हैं, की अच्छी कीमत नहीं मिलती, लेकिन फिर भी परागण के लिए इन्हें लगाया जाता है।
मर्चेंट किस्म: इसका फल मध्यम आकार का होता है। इसका छाल काली होती है। इस किस्म में हैवी क्रापिंग होती है। इसकी खासियत यह है कि इसका परागण किसी भी प्रजाति से आसानी से हो जाता है। यह किस्म भी अन्य किस्मों को पोलीनाइज कर सकती है। इसका पौधा मध्यम ऊंचाई वाला और अधिक फैलावदार होता है। इस किस्म को कैंकर आसानी से नहीं घेर पाता।
ड्यूरोनेरो-1: यह चैरी की स्वादिष्ट किस्म है। इस किस्म में काफी उत्पादन होता है। इसके फल आकार में अन्य किस्मों से बड़े होते हैं और इनकी लंबाई-चौड़ाई लगभग एक समान होती है। यह किस्म करीब 55 से 65 दिनों के भीतर पक कर तैयार हो जाती है। हिमाचल में इस किस्म का व्यवसायिक तौर पर काफी उत्पादन हो रहा है।
ड्यूरोनेरो-2: इस किस्म के फल भी पहली किस्म की तरह ही बड़े अकार के होते हैं। यह किस्म 75 दिन के आसपास तैयार होती है, क्योकि इसमें फूल अन्य किस्मों के मुकाबले कुछ देरी से आते हैं। इस किस्म की चैरी का गुद्दा सख्त लेकिन रसीला होता है।
ड्यूरोनेरो-3: इस किस्म की शैल्फ लाइफ काफी मजबूत होती है, इसलिए इसे दूर की मंडियों में भी आसानी से भेजा जा सकता है। ड्यूरोनेरो सीरीज की अन्य किस्मों की तरह इसका पौधा भी बड़ा और फैलावदार बनता है। यह किस्म भी 75 दिनों के करीब तैयार हो जाती है। इसके फलों की छाल गहरे लाल रंग की होती है।
रैगिना: यह किस्म 75-80 दिनों में तैयार होती है। इसकी उत्पादन क्षमता काफी अधिक है। इसका फल गहरे लाल रंग का होता है। इसके फल भी देरी से पकते हैं, लेकिन इसमें मिठास और रस अधिक होता है। इसका पौधा शंकु के आकार में बढ़ता है, जिसकी टहनियां झुकी हुई होती हैं।
वैन: इस किस्म के पौधे मध्यम से बड़े आकार के होते हैं, जिनमें हैवी क्रॉप लगती है। हालांकि इसके फलों का आकार अपेक्षाकृत कम होता है। इसके फल की डंडी छोटी रहती है, जिससे इसे तोडऩे में मुश्किल आती है। यह किस्म 60 से 65 दिनों के भीतर पक कर तैयार हो जाती है।
स्टैला: स्टैला किस्म में फल उत्पादन के लिए किसी अन्य परागण प्रजाति की जरूरत नहीं होती है। यह संकर किस्म है और इसके फल बड़े और गहरे रंग के होते हैं। यह किस्म भी 60 से 65 दिनों के भीतर तैयार हो जाती है। इसका पौधा भी सीधा ऊपर की ओर बढ़ता है।
बिंग: इस समय सारी दुनिया में बिंग किस्म की चैरी का सबसे ज्यादा उत्पादन किया जा रहा है। इसके पौधे की बढ़ोतरी काफी तेजी से होती है, जो अधिक पैदावार देती है। इसके फलों की छाल गहरे लाल रंग की और फल बड़ा होता है। यह किस्म लगभग 60 से 75 दिनों में तैयार हो जाती है।
सनबस्र्ट : यह किस्म भी बिना किसी परागण के फल पैदा करने में सक्षम है। इसे भी वैन और स्टैला से क्रास कर तैयार किया गया है। इसके पौधे मध्यम आकार के फैलावदार होते हैं। इसे 1983 में व्यावसायिक उत्पादन में लाया गया था। यह किस्म करीब 75दनों से पहले तैयार हो जाती है। इसका गुद्दा भी थोड़ा ठोस और स्वाद वाला होता है।
अर्ली रिवर्ज: इसके किस्म के पौधे का आकार बड़ा और फैलावदार होता है। फल गोलाकार और लंबे होते हैं। देखने में यह गहरे लाल और कुछ काले होते हैं। यह एक पुरानी अंग्रेजी किस्म है, जिसका गुद््दा नर्म व स्वाद से भरपूर होता है। यह करीब 60 दिनों में तैयार हो जाती है।
बरलैट: इसके पौधे के आकार बड़ा और फैलावदार होता है। इसके फल बड़े और दिल के आकार वाले होते हैं। इसकी छाल लाल और चमकदार होती है। लेकिन इसमें फल फटने की समस्या आ सकती है। यह प्रजाति फ्रांस में विकसित है, जो जल्द और ज्यादा पैदावार के लिए लगाई जाती है। यह एक अर्ली वैरायटी है और करीब 40 दिनों में तैयार हो जाती है।
लैंबर्ट: इस किस्म के फल मध्यम से कुछ बड़े और दिल के आकार के होते हैं। इस किस्म में भी फल फटने की समस्या आ सकती है। हालांकि इसका गुद्दा कठोर होता है। इसके पौधे काफी बड़े और फैलावदार होते हैं। इसमें मध्य समय में फूल आते हैं।
नाशपाती
हिमाचल प्रदेश में सेब के बाद पैदावार के लिहाज से नाशपाती का नंबर है। कुल्लू जिला में इसका उत्पादन अधिक होता है। जैसे-जैसे मार्केट में नाशपाती की डिमांड बढ़ी है, बागवान इसकी पैदावार की तरफ झुके हैं। प्रदेश में नाशपाती की उन्हीं किस्मों को उगाना फायदेमंद है, जिसकी शैल्फ लाइफ अच्छी हो। चूंकि नाशपाती से डिब्बाबंद पदार्थ भी तैयार किए जा सकते हैं, इसलिए इसकी पैदावार में बागवानों को भी लाभ है। जागरुकता बढऩे के साथ ही बागवान सेब के बागीचों में खाली जगह पर नाशपाती की सघन बागवानी कर रहे हैं। बहुत से प्रगतिशील बागवानों ने रूट स्टॉक के जरिए नाशपाती की विदेशी किस्मों को उगाया है। एक अन्य कारण है, जिसके चलते बागवान नाशापाती उगा रहे हैं। अब प्रदेश में ही सीए स्टोर की सुविधा उपलब्ध है। इस तरह ऑफ सीजन में भी बागवान इसकी पैदावार कर लाभ कमा रहे हैं। ऊंचाई वाले इलाकों में नाशापाती की अगेती किस्मों में अर्ली चाइना, लेक्सट्नस सुपर्ब आदि वैरायटियां उगाई जाती हैं। मध्य मौसमी किस्मों में वार्टलेट, रेड वार्टलेट, मैक्स रेड वार्टलेट, क्लैपस फेवरेट आदि शामिल हैं।
पछेती किस्मों में डायने ड्यूकोमिस व कश्मीरी नाशपाती आती है। इसी तरह मध्यवर्ती निचले इलाकों में पत्थर नाख, कीफर (परागणकर्ता) व चाइना नाशपाती है। अर्ली चाइना नाशपाती सबसे पहले पकने वाली किस्म है। यह जून महीने में पककर तैयार हो जाती है। लेक्सट्नस सुपर्ब नाशपाती अधिक पैदावार देने वाली किस्म है। वार्टलेट किस्म सबसे लोकप्रिय है। रेड वार्टलेट व्यवसायिक किस्म है। फ्लैमिश ब्यूटी किस्म सितंबर में पक कर तैयार होती है। स्टार क्रिमसन मध्यम पर्वतीय इलाकों के लिए अनुकूल है। काशमीरी नाशपाती नियमित रूप से अधिक फल देने वाली किस्म है। पैखम थ्रंपस की शैल लाइफ सबसे अधिक है और इसकी पैदावार कलम लगने के दूसरे साल ही आनी शुरू हो जाती है। इसके साथ ही कांफ्रेंस कानकार्ड और इटली की किस्म अपाटे फैटल की शैल्फ लाइफ अच्छी है और यह लेट वैरायटी है। इटली की किस्म कारमेन वैरायटी अर्ली वैरायटी में शामिल है, जो वार्टलेट से भी पहले मार्केट में आती है।
नाशपाती के रूट स्टॉक कैंथ व क्वींस पर लगाए जाते हैं। कैंथ पर पौधे की ग्रोथ अच्छी होती है और फल लेट आते हैं। क्वींस पर तैयार किया गया पौधा आकार में छोटा होता है और जल्दी पैदावार देता है। इस समय विश्व में नाशपाती की पैदावार रूट स्टॉक पर हो रही है। सिडलिंग पर इसे तैयार करना महंगा है। जिस भूमि की उपजाऊ शक्ति अच्छी हो, उसमें लगाए पौधों की बढ़ोतरी अधिक होती है। ऐसी जगह नाइट्रोजन युक्त खाद का प्रयोग कम करना चाहिए। नहीं तो पेड़ों में फूल की कलियां नहीं बनेगी। ऐसे पेड़ों में पोटाश व फास्फेट खाद की मात्रा बढ़ा देनी चाहिए। ये दोनों खादें फल की कलियों को बढ़ाने में सहायक होती है। नाशपाती में सेब की तरह ही खादें डाली जाती हैं।
परागण की समस्या और समाधान: नाशपाती की अधिकतर किस्में यदि अकेले लगाई जाएं तो फल कम लगते हैं। ऐसे में दोनाशपाती के रूट स्टॉक कैंथ व क्वींस पर लगाए जाते हैं। कैंथ पर पौधे की ग्रोथ अच्छी होती है और फल लेट आते हैं। क्वींस पर तैयार किया गया पौधा आकार में छोटा होता है और जल्दी पैदावार देता है। इस समय विश्व में नाशपाती की पैदावार रूट स्टॉक पर हो रही है। सिडलिंग पर इसे तैयार करना महंगा है। जिस भूमि की उपजाऊ शक्ति अच्छी हो, उसमें लगाए पौधों की बढ़ोतरी अधिक होती है। ऐसी जगह नाइट्रोजन युक्त खाद का प्रयोग कम करना चाहिए। नहीं तो पेड़ों में फूल की कलियां नहीं बनेगी। ऐसे पेड़ों में पोटाश व फास्फेट खाद की मात्रा बढ़ा देनी चाहिए। ये दोनों खादें फल की कलियों को बढ़ाने में सहायक होती है। नाशपाती में सेब की तरह ही खादें डाली जाती हैं।
यदि नया बगीचा लगाना हो तो परागणकर्ता किस्में लगाना जरूरी हैं। नाशपाती की मुख्य किस्में वार्टलेट कांफ्रेंस पैखम, बूरीबॉक्स, स्टार क्रिमसन आदि हैं। वार्टलेट के साथ बूरीबाक्स, विंटरनेलिस, पैखम व कांफ्र्रेंस को पोलीनाइजर के रूप में लगाना चाहिए। इसी तरह कांफ्रेंस के साथ वार्टलेट व बूरीबॉक्स, पैखम के साथ वार्टलेट, बूरीबाक्स फिर बूरीबाक्स के साथ वार्टलेट, विंटरनेलिस व कांफ्रेंस और स्टार क्रिमसन के साथ बूरीबाक्स, कांफ्रेंस, वार्टलेट व विंटरनेलिस को पोलीनाइजर के तौर पर लगाना चाहिए।लिए मिट्टी में पोषक तत्व फिर से लौट आते हैं।
कैनल रेड नाशपाती

कैनल रेड नाशपाती


हिमाचल प्रदेश में नाशपाती की यह किस्म चार साल पहले लगाई गई थी। इस किस्म की नाशपाती का रंग सुर्ख लाल होता है। यह किस्म छह हजार फीट से कम ऊंचाई वाले इलाकों में अधिक ग्रोथ हासिल नहीं कर पाती। कारण यह है कि इसकी चिलिंग रिक्वायरमेंट अधिक होती है। इसकी शैल्फ लाइफ मजबूत होती है।
कॉनकार्ड or डायनाड्यूकोमिक

कॉनकार्ड or डायनाड्यूकोमिक


कॉनकार्ड
आकार में लंबी इस किस्म की नाशपाती का फल दिखने में खूबसूरत है। यह किस्म इंग्लैंड में विकसित की गई थी। यूरोपीय देशों में इस किस्म की बहुत अधिक मांग है। इस किस्म की नाशपाती ड्रॉपिंग की समस्या से दूर है।


डायनाड्यूकोमिक
यह फ्रांस की किस्म है। इसका इतिहास दो सदी से भी अधिक का है। यह अगस्त के अंत में तैयार होती है। स्वाद में मिठास लिए यह किस्म आकार में बड़ी होती है। इसका रंग हल्का पीला है।