ब्लैक हार्ट
फल औसत आकार वाले होते हैं, त्वचा पतली तथा काले रंग की होती है। खाने में स्वादिष्ट तथा खुशबूदार, गुद्दा मुलायम व रसदार होता है। फल मई के पहले सप्ताह में पकते हैं। इसके अलावा स्टैला तथा लैपिनस ऐसी किस्में हैं, जो स्वयं फलित हैं। स्टैला के फल सख्त काले रंग के तथा बड़े आकार के होते हैं।
प्रदेश में अधिकतर पौधे रेड हार्ट तथा ब्लैक हार्ट किस्मों के लगे हुए हैं, लेकिन अभी तक इसकी बागवानी व्यवसायिक स्तर पर नहीं हो रही है। ब्लैक हार्ट एक कमर्शियल किस्म है। इसकी बाजार में अच्छी कीमत मिल जाती है। रेड हार्ट, जिसके फल लाल रंग के तथा कुछ खट्टे होते हैं, की अच्छी कीमत नहीं मिलती, लेकिन फिर भी परागण के लिए इन्हें लगाया जाता है।
मर्चेंट किस्म
इसका फल मध्यम आकार का होता है। इसका छाल काली होती है। इस किस्म में हैवी क्रापिंग होती है। इसकी खासियत यह है कि इसका परागण किसी भी प्रजाति से आसानी से हो जाता है। यह किस्म भी अन्य किस्मों को पोलीनाइज कर सकती है। इसका पौधा मध्यम ऊंचाई वाला और अधिक फैलावदार होता है। इस किस्म को कैंकर आसानी से नहीं घेर पाता।
सनबस्र्ट
यह किस्म भी बिना किसी परागण के फल पैदा करने में सक्षम है। इसे भी वैन और स्टैला से क्रास कर तैयार किया गया है। इसके पौधे मध्यम आकार के फैलावदार होते हैं। इसे 1983 में व्यावसायिक उत्पादन में लाया गया था। यह किस्म करीब 75दनों से पहले तैयार हो जाती है। इसका गुद्दा भी थोड़ा ठोस और स्वाद वाला होता है। अर्ली रिवर्ज: इसके किस्म के पौधे का आकार बड़ा और फैलावदार होता है। फल गोलाकार और लंबे होते हैं। देखने में यह गहरे लाल और कुछ काले होते हैं। यह एक पुरानी अंग्रेजी किस्म है, जिसका गुद््दा नर्म व स्वाद से भरपूर होता है। यह करीब 60 दिनों में तैयार हो जाती है।
बरलैट: इसके पौधे के आकार बड़ा और फैलावदार होता है। इसके फल बड़े और दिल के आकार वाले होते हैं। इसकी छाल लाल और चमकदार होती है। लेकिन इसमें फल फटने की समस्या आ सकती है। यह प्रजाति फ्रांस में विकसित है, जो जल्द और ज्यादा पैदावार के लिए लगाई जाती है। यह एक अर्ली वैरायटी है और करीब 40 दिनों में तैयार हो जाती है।
बरलैट: इसके पौधे के आकार बड़ा और फैलावदार होता है। इसके फल बड़े और दिल के आकार वाले होते हैं। इसकी छाल लाल और चमकदार होती है। लेकिन इसमें फल फटने की समस्या आ सकती है। यह प्रजाति फ्रांस में विकसित है, जो जल्द और ज्यादा पैदावार के लिए लगाई जाती है। यह एक अर्ली वैरायटी है और करीब 40 दिनों में तैयार हो जाती है।
चैरी दिखने में खूबसूरत फल है और स्वाद में रसीला
हिमाचल प्रदेश के बागवान चैरी उत्पादन की तरफ झुकाव पैदा कर रहे हैं। पिछले कुछ समय से प्रदेश में चैरी पैदा करने को लेकर बागवानों में उत्साह दिखाई दे रहा है। जिन इलाकों में किन्हीं कारणों से सेब उत्पादन प्रभावित हुआ है, वहां चैरी सफल हो रही है। यहां चैरी की किस्मों पर केंद्रित कुछ जानकारी प्रस्तुत है…
चैरी दिखने में खूबसूरत फल है और स्वाद में रसीला। इसकी मुख्य रूप से दो किस्में हार्ट ग्रुप व राउंड शेप हैं। हार्ट ग्रुप में वह किस्में आती हैं, जिनके फल मुलायम रसदार गुद्दे वाले व हृदयकार होते हैं। इसमें गहरे तथा हल्के रंग वाली दोनों जातियां शामिल हैं। इनका रस लाल तथा लगभग सफेद रंग का होता है। बिगारियो ग्रुप में वह जातियां आती हैं, जिनके फल तुलना में सख्त, क्रिस्पी तथा गोल आकार के होते हैं। कुछ किस्मों के फल हृदयकार के भी होते हैं।
ब्लैक टारटेरियन : इसके फल मध्यम आकार, काले बैंगनी रंग, रसदार तथा मुलायम होते हैं। बिंग तथा लैंबर्ट किस्मों के लिये यह मुख्य परागण किस्म है।
बिंग: इस किस्म की चैरी के फल लाल रंग के होते हैं। पकने पर यह काले हो जाते हैं। इन्हें देर तक रखा जा सकता है। यह किस्म डिब्बा बंदी के लिये भी सही है। बारिश में इसके फल फट जाते हैं।
नैपोलियन : इस किस्म की चैरी में फल सख्त, हल्के रंग के तथा सफे द गूदे वाले होते हैं। यह किस्म भी डिब्बा बंदी के लिए अच्छी है।
स्टू : नैपोलियन किस्म की तुलना में इस चैरी के फल छोटे होते हैं, लेकिन ये स्वाद में मीठे होते हैं।
ब्लैक रिपब्लिकन : फल गहरे लाल रंग के होते हैं। इन्हें देर तक रखा जा सकता है। यह परागण के लिये उपयुक्त किस्म है।
वैन : बिंग, लैंबर्ट व नैपोलियन के परागण के लिए यह उपयुक्त किस्म है। फल मध्यम आकार तथा काले रंग के होते हैं, इनमें बिंग किस्म की तुलना में फटने की कम आशंका होती है। इसके डंठल छोटे होते हैं तथा यह डिब्बाबंदी के लिए उपयुक्त किस्म है।
सैम : इसके फल लाल रंग के तथा लैंबर्ट किस्म के आकार के होते है। बिंग, लैंबर्ट व नैपोलियन किस्मों के परागण के लिए यह अच्छी किस्म है। यह डिब्बा बंदी के लिए भी ठीक है।
लैंबर्ट : इसके फल बैंगनी लाल तथा नुकीले आकार के होते हैं जो वर्षा गतु आने पर फट जाते हैं। जहां पर बसंत के मौसम में अधिक पाला पड़ता हा, वहां के लिए यह उपयुक्त किस्म है।
एंपरर फ्रांसिस : इसमें फल बहुत बड़े आकार के गहरे लाल रंग के होते है। इन्हें शीत गृह में काफी समय तक रखा जा सकता है। यह देर से पकने वाली किस्म है जो मई के तीसरे हफ्ते में तैयार होती है। डिब्बा बंदी के लिए भी अच्छी किस्म है।
अर्ली रिवर्स : इसमें फलों का आकार बड़ा व त्वचा का रंग काला होता है। फल बहुत रसदार, स्वाद से भरपूर अच्छे होते हैं। इसमें फल मई के पहले हफ्ते में पकते हैं।
ब्लैक हार्ट : फल औसत आकार वाले होते हैं, त्वचा पतली तथा काले रंग की होती है। खाने में स्वादिष्ट तथा खुशबूदार, गुद्दा मुलायम व रसदार होता है। फल मई के पहले सप्ताह में पकते हैं।
इसके अलावा स्टैला तथा लैपिनस ऐसी किस्में हैं, जो स्वयं फलित हैं। स्टैला के फल सख्त काले रंग के तथा बड़े आकार के होते हैं।
प्रदेश में अधिकतर पौधे रेड हार्ट तथा ब्लैक हार्ट किस्मों के लगे हुए हैं, लेकिन अभी तक इसकी बागवानी व्यवसायिक स्तर पर नहीं हो रही है। ब्लैक हार्ट एक कमर्शियल किस्म है। इसकी बाजार में अच्छी कीमत मिल जाती है। रेड हार्ट, जिसके फल लाल रंग के तथा कुछ खट्टे होते हैं, की अच्छी कीमत नहीं मिलती, लेकिन फिर भी परागण के लिए इन्हें लगाया जाता है।
मर्चेंट किस्म: इसका फल मध्यम आकार का होता है। इसका छाल काली होती है। इस किस्म में हैवी क्रापिंग होती है। इसकी खासियत यह है कि इसका परागण किसी भी प्रजाति से आसानी से हो जाता है। यह किस्म भी अन्य किस्मों को पोलीनाइज कर सकती है। इसका पौधा मध्यम ऊंचाई वाला और अधिक फैलावदार होता है। इस किस्म को कैंकर आसानी से नहीं घेर पाता।
ड्यूरोनेरो-1: यह चैरी की स्वादिष्ट किस्म है। इस किस्म में काफी उत्पादन होता है। इसके फल आकार में अन्य किस्मों से बड़े होते हैं और इनकी लंबाई-चौड़ाई लगभग एक समान होती है। यह किस्म करीब 55 से 65 दिनों के भीतर पक कर तैयार हो जाती है। हिमाचल में इस किस्म का व्यवसायिक तौर पर काफी उत्पादन हो रहा है।
ड्यूरोनेरो-2: इस किस्म के फल भी पहली किस्म की तरह ही बड़े अकार के होते हैं। यह किस्म 75 दिन के आसपास तैयार होती है, क्योकि इसमें फूल अन्य किस्मों के मुकाबले कुछ देरी से आते हैं। इस किस्म की चैरी का गुद्दा सख्त लेकिन रसीला होता है।
ड्यूरोनेरो-3: इस किस्म की शैल्फ लाइफ काफी मजबूत होती है, इसलिए इसे दूर की मंडियों में भी आसानी से भेजा जा सकता है। ड्यूरोनेरो सीरीज की अन्य किस्मों की तरह इसका पौधा भी बड़ा और फैलावदार बनता है। यह किस्म भी 75 दिनों के करीब तैयार हो जाती है। इसके फलों की छाल गहरे लाल रंग की होती है।
रैगिना: यह किस्म 75-80 दिनों में तैयार होती है। इसकी उत्पादन क्षमता काफी अधिक है। इसका फल गहरे लाल रंग का होता है। इसके फल भी देरी से पकते हैं, लेकिन इसमें मिठास और रस अधिक होता है। इसका पौधा शंकु के आकार में बढ़ता है, जिसकी टहनियां झुकी हुई होती हैं।
वैन: इस किस्म के पौधे मध्यम से बड़े आकार के होते हैं, जिनमें हैवी क्रॉप लगती है। हालांकि इसके फलों का आकार अपेक्षाकृत कम होता है। इसके फल की डंडी छोटी रहती है, जिससे इसे तोडऩे में मुश्किल आती है। यह किस्म 60 से 65 दिनों के भीतर पक कर तैयार हो जाती है।
स्टैला: स्टैला किस्म में फल उत्पादन के लिए किसी अन्य परागण प्रजाति की जरूरत नहीं होती है। यह संकर किस्म है और इसके फल बड़े और गहरे रंग के होते हैं। यह किस्म भी 60 से 65 दिनों के भीतर तैयार हो जाती है। इसका पौधा भी सीधा ऊपर की ओर बढ़ता है।
बिंग: इस समय सारी दुनिया में बिंग किस्म की चैरी का सबसे ज्यादा उत्पादन किया जा रहा है। इसके पौधे की बढ़ोतरी काफी तेजी से होती है, जो अधिक पैदावार देती है। इसके फलों की छाल गहरे लाल रंग की और फल बड़ा होता है। यह किस्म लगभग 60 से 75 दिनों में तैयार हो जाती है।
सनबस्र्ट : यह किस्म भी बिना किसी परागण के फल पैदा करने में सक्षम है। इसे भी वैन और स्टैला से क्रास कर तैयार किया गया है। इसके पौधे मध्यम आकार के फैलावदार होते हैं। इसे 1983 में व्यावसायिक उत्पादन में लाया गया था। यह किस्म करीब 75दनों से पहले तैयार हो जाती है। इसका गुद्दा भी थोड़ा ठोस और स्वाद वाला होता है।
अर्ली रिवर्ज: इसके किस्म के पौधे का आकार बड़ा और फैलावदार होता है। फल गोलाकार और लंबे होते हैं। देखने में यह गहरे लाल और कुछ काले होते हैं। यह एक पुरानी अंग्रेजी किस्म है, जिसका गुद््दा नर्म व स्वाद से भरपूर होता है। यह करीब 60 दिनों में तैयार हो जाती है।
बरलैट: इसके पौधे के आकार बड़ा और फैलावदार होता है। इसके फल बड़े और दिल के आकार वाले होते हैं। इसकी छाल लाल और चमकदार होती है। लेकिन इसमें फल फटने की समस्या आ सकती है। यह प्रजाति फ्रांस में विकसित है, जो जल्द और ज्यादा पैदावार के लिए लगाई जाती है। यह एक अर्ली वैरायटी है और करीब 40 दिनों में तैयार हो जाती है।
लैंबर्ट: इस किस्म के फल मध्यम से कुछ बड़े और दिल के आकार के होते हैं। इस किस्म में भी फल फटने की समस्या आ सकती है। हालांकि इसका गुद्दा कठोर होता है। इसके पौधे काफी बड़े और फैलावदार होते हैं। इसमें मध्य समय में फूल आते हैं।
नाशपाती
हिमाचल प्रदेश में सेब के बाद पैदावार के लिहाज से नाशपाती का नंबर है। कुल्लू जिला में इसका उत्पादन अधिक होता है। जैसे-जैसे मार्केट में नाशपाती की डिमांड बढ़ी है, बागवान इसकी पैदावार की तरफ झुके हैं। प्रदेश में नाशपाती की उन्हीं किस्मों को उगाना फायदेमंद है, जिसकी शैल्फ लाइफ अच्छी हो। चूंकि नाशपाती से डिब्बाबंद पदार्थ भी तैयार किए जा सकते हैं, इसलिए इसकी पैदावार में बागवानों को भी लाभ है। जागरुकता बढऩे के साथ ही बागवान सेब के बागीचों में खाली जगह पर नाशपाती की सघन बागवानी कर रहे हैं। बहुत से प्रगतिशील बागवानों ने रूट स्टॉक के जरिए नाशपाती की विदेशी किस्मों को उगाया है। एक अन्य कारण है, जिसके चलते बागवान नाशापाती उगा रहे हैं। अब प्रदेश में ही सीए स्टोर की सुविधा उपलब्ध है। इस तरह ऑफ सीजन में भी बागवान इसकी पैदावार कर लाभ कमा रहे हैं। ऊंचाई वाले इलाकों में नाशापाती की अगेती किस्मों में अर्ली चाइना, लेक्सट्नस सुपर्ब आदि वैरायटियां उगाई जाती हैं। मध्य मौसमी किस्मों में वार्टलेट, रेड वार्टलेट, मैक्स रेड वार्टलेट, क्लैपस फेवरेट आदि शामिल हैं।
पछेती किस्मों में डायने ड्यूकोमिस व कश्मीरी नाशपाती आती है। इसी तरह मध्यवर्ती निचले इलाकों में पत्थर नाख, कीफर (परागणकर्ता) व चाइना नाशपाती है। अर्ली चाइना नाशपाती सबसे पहले पकने वाली किस्म है। यह जून महीने में पककर तैयार हो जाती है। लेक्सट्नस सुपर्ब नाशपाती अधिक पैदावार देने वाली किस्म है। वार्टलेट किस्म सबसे लोकप्रिय है। रेड वार्टलेट व्यवसायिक किस्म है। फ्लैमिश ब्यूटी किस्म सितंबर में पक कर तैयार होती है। स्टार क्रिमसन मध्यम पर्वतीय इलाकों के लिए अनुकूल है। काशमीरी नाशपाती नियमित रूप से अधिक फल देने वाली किस्म है। पैखम थ्रंपस की शैल लाइफ सबसे अधिक है और इसकी पैदावार कलम लगने के दूसरे साल ही आनी शुरू हो जाती है। इसके साथ ही कांफ्रेंस कानकार्ड और इटली की किस्म अपाटे फैटल की शैल्फ लाइफ अच्छी है और यह लेट वैरायटी है। इटली की किस्म कारमेन वैरायटी अर्ली वैरायटी में शामिल है, जो वार्टलेट से भी पहले मार्केट में आती है।
नाशपाती के रूट स्टॉक कैंथ व क्वींस पर लगाए जाते हैं। कैंथ पर पौधे की ग्रोथ अच्छी होती है और फल लेट आते हैं। क्वींस पर तैयार किया गया पौधा आकार में छोटा होता है और जल्दी पैदावार देता है। इस समय विश्व में नाशपाती की पैदावार रूट स्टॉक पर हो रही है। सिडलिंग पर इसे तैयार करना महंगा है। जिस भूमि की उपजाऊ शक्ति अच्छी हो, उसमें लगाए पौधों की बढ़ोतरी अधिक होती है। ऐसी जगह नाइट्रोजन युक्त खाद का प्रयोग कम करना चाहिए। नहीं तो पेड़ों में फूल की कलियां नहीं बनेगी। ऐसे पेड़ों में पोटाश व फास्फेट खाद की मात्रा बढ़ा देनी चाहिए। ये दोनों खादें फल की कलियों को बढ़ाने में सहायक होती है। नाशपाती में सेब की तरह ही खादें डाली जाती हैं।
परागण की समस्या और समाधान: नाशपाती की अधिकतर किस्में यदि अकेले लगाई जाएं तो फल कम लगते हैं। ऐसे में दोनाशपाती के रूट स्टॉक कैंथ व क्वींस पर लगाए जाते हैं। कैंथ पर पौधे की ग्रोथ अच्छी होती है और फल लेट आते हैं। क्वींस पर तैयार किया गया पौधा आकार में छोटा होता है और जल्दी पैदावार देता है। इस समय विश्व में नाशपाती की पैदावार रूट स्टॉक पर हो रही है। सिडलिंग पर इसे तैयार करना महंगा है। जिस भूमि की उपजाऊ शक्ति अच्छी हो, उसमें लगाए पौधों की बढ़ोतरी अधिक होती है। ऐसी जगह नाइट्रोजन युक्त खाद का प्रयोग कम करना चाहिए। नहीं तो पेड़ों में फूल की कलियां नहीं बनेगी। ऐसे पेड़ों में पोटाश व फास्फेट खाद की मात्रा बढ़ा देनी चाहिए। ये दोनों खादें फल की कलियों को बढ़ाने में सहायक होती है। नाशपाती में सेब की तरह ही खादें डाली जाती हैं।
यदि नया बगीचा लगाना हो तो परागणकर्ता किस्में लगाना जरूरी हैं। नाशपाती की मुख्य किस्में वार्टलेट कांफ्रेंस पैखम, बूरीबॉक्स, स्टार क्रिमसन आदि हैं। वार्टलेट के साथ बूरीबाक्स, विंटरनेलिस, पैखम व कांफ्र्रेंस को पोलीनाइजर के रूप में लगाना चाहिए। इसी तरह कांफ्रेंस के साथ वार्टलेट व बूरीबॉक्स, पैखम के साथ वार्टलेट, बूरीबाक्स फिर बूरीबाक्स के साथ वार्टलेट, विंटरनेलिस व कांफ्रेंस और स्टार क्रिमसन के साथ बूरीबाक्स, कांफ्रेंस, वार्टलेट व विंटरनेलिस को पोलीनाइजर के तौर पर लगाना चाहिए।लिए मिट्टी में पोषक तत्व फिर से लौट आते हैं।
चैरी दिखने में खूबसूरत फल है और स्वाद में रसीला। इसकी मुख्य रूप से दो किस्में हार्ट ग्रुप व राउंड शेप हैं। हार्ट ग्रुप में वह किस्में आती हैं, जिनके फल मुलायम रसदार गुद्दे वाले व हृदयकार होते हैं। इसमें गहरे तथा हल्के रंग वाली दोनों जातियां शामिल हैं। इनका रस लाल तथा लगभग सफेद रंग का होता है। बिगारियो ग्रुप में वह जातियां आती हैं, जिनके फल तुलना में सख्त, क्रिस्पी तथा गोल आकार के होते हैं। कुछ किस्मों के फल हृदयकार के भी होते हैं।
ब्लैक टारटेरियन : इसके फल मध्यम आकार, काले बैंगनी रंग, रसदार तथा मुलायम होते हैं। बिंग तथा लैंबर्ट किस्मों के लिये यह मुख्य परागण किस्म है।
बिंग: इस किस्म की चैरी के फल लाल रंग के होते हैं। पकने पर यह काले हो जाते हैं। इन्हें देर तक रखा जा सकता है। यह किस्म डिब्बा बंदी के लिये भी सही है। बारिश में इसके फल फट जाते हैं।
नैपोलियन : इस किस्म की चैरी में फल सख्त, हल्के रंग के तथा सफे द गूदे वाले होते हैं। यह किस्म भी डिब्बा बंदी के लिए अच्छी है।
स्टू : नैपोलियन किस्म की तुलना में इस चैरी के फल छोटे होते हैं, लेकिन ये स्वाद में मीठे होते हैं।
ब्लैक रिपब्लिकन : फल गहरे लाल रंग के होते हैं। इन्हें देर तक रखा जा सकता है। यह परागण के लिये उपयुक्त किस्म है।
वैन : बिंग, लैंबर्ट व नैपोलियन के परागण के लिए यह उपयुक्त किस्म है। फल मध्यम आकार तथा काले रंग के होते हैं, इनमें बिंग किस्म की तुलना में फटने की कम आशंका होती है। इसके डंठल छोटे होते हैं तथा यह डिब्बाबंदी के लिए उपयुक्त किस्म है।
सैम : इसके फल लाल रंग के तथा लैंबर्ट किस्म के आकार के होते है। बिंग, लैंबर्ट व नैपोलियन किस्मों के परागण के लिए यह अच्छी किस्म है। यह डिब्बा बंदी के लिए भी ठीक है।
लैंबर्ट : इसके फल बैंगनी लाल तथा नुकीले आकार के होते हैं जो वर्षा गतु आने पर फट जाते हैं। जहां पर बसंत के मौसम में अधिक पाला पड़ता हा, वहां के लिए यह उपयुक्त किस्म है।
एंपरर फ्रांसिस : इसमें फल बहुत बड़े आकार के गहरे लाल रंग के होते है। इन्हें शीत गृह में काफी समय तक रखा जा सकता है। यह देर से पकने वाली किस्म है जो मई के तीसरे हफ्ते में तैयार होती है। डिब्बा बंदी के लिए भी अच्छी किस्म है।
अर्ली रिवर्स : इसमें फलों का आकार बड़ा व त्वचा का रंग काला होता है। फल बहुत रसदार, स्वाद से भरपूर अच्छे होते हैं। इसमें फल मई के पहले हफ्ते में पकते हैं।
ब्लैक हार्ट : फल औसत आकार वाले होते हैं, त्वचा पतली तथा काले रंग की होती है। खाने में स्वादिष्ट तथा खुशबूदार, गुद्दा मुलायम व रसदार होता है। फल मई के पहले सप्ताह में पकते हैं।
इसके अलावा स्टैला तथा लैपिनस ऐसी किस्में हैं, जो स्वयं फलित हैं। स्टैला के फल सख्त काले रंग के तथा बड़े आकार के होते हैं।
प्रदेश में अधिकतर पौधे रेड हार्ट तथा ब्लैक हार्ट किस्मों के लगे हुए हैं, लेकिन अभी तक इसकी बागवानी व्यवसायिक स्तर पर नहीं हो रही है। ब्लैक हार्ट एक कमर्शियल किस्म है। इसकी बाजार में अच्छी कीमत मिल जाती है। रेड हार्ट, जिसके फल लाल रंग के तथा कुछ खट्टे होते हैं, की अच्छी कीमत नहीं मिलती, लेकिन फिर भी परागण के लिए इन्हें लगाया जाता है।
मर्चेंट किस्म: इसका फल मध्यम आकार का होता है। इसका छाल काली होती है। इस किस्म में हैवी क्रापिंग होती है। इसकी खासियत यह है कि इसका परागण किसी भी प्रजाति से आसानी से हो जाता है। यह किस्म भी अन्य किस्मों को पोलीनाइज कर सकती है। इसका पौधा मध्यम ऊंचाई वाला और अधिक फैलावदार होता है। इस किस्म को कैंकर आसानी से नहीं घेर पाता।
ड्यूरोनेरो-1: यह चैरी की स्वादिष्ट किस्म है। इस किस्म में काफी उत्पादन होता है। इसके फल आकार में अन्य किस्मों से बड़े होते हैं और इनकी लंबाई-चौड़ाई लगभग एक समान होती है। यह किस्म करीब 55 से 65 दिनों के भीतर पक कर तैयार हो जाती है। हिमाचल में इस किस्म का व्यवसायिक तौर पर काफी उत्पादन हो रहा है।
ड्यूरोनेरो-2: इस किस्म के फल भी पहली किस्म की तरह ही बड़े अकार के होते हैं। यह किस्म 75 दिन के आसपास तैयार होती है, क्योकि इसमें फूल अन्य किस्मों के मुकाबले कुछ देरी से आते हैं। इस किस्म की चैरी का गुद्दा सख्त लेकिन रसीला होता है।
ड्यूरोनेरो-3: इस किस्म की शैल्फ लाइफ काफी मजबूत होती है, इसलिए इसे दूर की मंडियों में भी आसानी से भेजा जा सकता है। ड्यूरोनेरो सीरीज की अन्य किस्मों की तरह इसका पौधा भी बड़ा और फैलावदार बनता है। यह किस्म भी 75 दिनों के करीब तैयार हो जाती है। इसके फलों की छाल गहरे लाल रंग की होती है।
रैगिना: यह किस्म 75-80 दिनों में तैयार होती है। इसकी उत्पादन क्षमता काफी अधिक है। इसका फल गहरे लाल रंग का होता है। इसके फल भी देरी से पकते हैं, लेकिन इसमें मिठास और रस अधिक होता है। इसका पौधा शंकु के आकार में बढ़ता है, जिसकी टहनियां झुकी हुई होती हैं।
वैन: इस किस्म के पौधे मध्यम से बड़े आकार के होते हैं, जिनमें हैवी क्रॉप लगती है। हालांकि इसके फलों का आकार अपेक्षाकृत कम होता है। इसके फल की डंडी छोटी रहती है, जिससे इसे तोडऩे में मुश्किल आती है। यह किस्म 60 से 65 दिनों के भीतर पक कर तैयार हो जाती है।
स्टैला: स्टैला किस्म में फल उत्पादन के लिए किसी अन्य परागण प्रजाति की जरूरत नहीं होती है। यह संकर किस्म है और इसके फल बड़े और गहरे रंग के होते हैं। यह किस्म भी 60 से 65 दिनों के भीतर तैयार हो जाती है। इसका पौधा भी सीधा ऊपर की ओर बढ़ता है।
बिंग: इस समय सारी दुनिया में बिंग किस्म की चैरी का सबसे ज्यादा उत्पादन किया जा रहा है। इसके पौधे की बढ़ोतरी काफी तेजी से होती है, जो अधिक पैदावार देती है। इसके फलों की छाल गहरे लाल रंग की और फल बड़ा होता है। यह किस्म लगभग 60 से 75 दिनों में तैयार हो जाती है।
सनबस्र्ट : यह किस्म भी बिना किसी परागण के फल पैदा करने में सक्षम है। इसे भी वैन और स्टैला से क्रास कर तैयार किया गया है। इसके पौधे मध्यम आकार के फैलावदार होते हैं। इसे 1983 में व्यावसायिक उत्पादन में लाया गया था। यह किस्म करीब 75दनों से पहले तैयार हो जाती है। इसका गुद्दा भी थोड़ा ठोस और स्वाद वाला होता है।
अर्ली रिवर्ज: इसके किस्म के पौधे का आकार बड़ा और फैलावदार होता है। फल गोलाकार और लंबे होते हैं। देखने में यह गहरे लाल और कुछ काले होते हैं। यह एक पुरानी अंग्रेजी किस्म है, जिसका गुद््दा नर्म व स्वाद से भरपूर होता है। यह करीब 60 दिनों में तैयार हो जाती है।
बरलैट: इसके पौधे के आकार बड़ा और फैलावदार होता है। इसके फल बड़े और दिल के आकार वाले होते हैं। इसकी छाल लाल और चमकदार होती है। लेकिन इसमें फल फटने की समस्या आ सकती है। यह प्रजाति फ्रांस में विकसित है, जो जल्द और ज्यादा पैदावार के लिए लगाई जाती है। यह एक अर्ली वैरायटी है और करीब 40 दिनों में तैयार हो जाती है।
लैंबर्ट: इस किस्म के फल मध्यम से कुछ बड़े और दिल के आकार के होते हैं। इस किस्म में भी फल फटने की समस्या आ सकती है। हालांकि इसका गुद्दा कठोर होता है। इसके पौधे काफी बड़े और फैलावदार होते हैं। इसमें मध्य समय में फूल आते हैं।
नाशपाती
हिमाचल प्रदेश में सेब के बाद पैदावार के लिहाज से नाशपाती का नंबर है। कुल्लू जिला में इसका उत्पादन अधिक होता है। जैसे-जैसे मार्केट में नाशपाती की डिमांड बढ़ी है, बागवान इसकी पैदावार की तरफ झुके हैं। प्रदेश में नाशपाती की उन्हीं किस्मों को उगाना फायदेमंद है, जिसकी शैल्फ लाइफ अच्छी हो। चूंकि नाशपाती से डिब्बाबंद पदार्थ भी तैयार किए जा सकते हैं, इसलिए इसकी पैदावार में बागवानों को भी लाभ है। जागरुकता बढऩे के साथ ही बागवान सेब के बागीचों में खाली जगह पर नाशपाती की सघन बागवानी कर रहे हैं। बहुत से प्रगतिशील बागवानों ने रूट स्टॉक के जरिए नाशपाती की विदेशी किस्मों को उगाया है। एक अन्य कारण है, जिसके चलते बागवान नाशापाती उगा रहे हैं। अब प्रदेश में ही सीए स्टोर की सुविधा उपलब्ध है। इस तरह ऑफ सीजन में भी बागवान इसकी पैदावार कर लाभ कमा रहे हैं। ऊंचाई वाले इलाकों में नाशापाती की अगेती किस्मों में अर्ली चाइना, लेक्सट्नस सुपर्ब आदि वैरायटियां उगाई जाती हैं। मध्य मौसमी किस्मों में वार्टलेट, रेड वार्टलेट, मैक्स रेड वार्टलेट, क्लैपस फेवरेट आदि शामिल हैं।
पछेती किस्मों में डायने ड्यूकोमिस व कश्मीरी नाशपाती आती है। इसी तरह मध्यवर्ती निचले इलाकों में पत्थर नाख, कीफर (परागणकर्ता) व चाइना नाशपाती है। अर्ली चाइना नाशपाती सबसे पहले पकने वाली किस्म है। यह जून महीने में पककर तैयार हो जाती है। लेक्सट्नस सुपर्ब नाशपाती अधिक पैदावार देने वाली किस्म है। वार्टलेट किस्म सबसे लोकप्रिय है। रेड वार्टलेट व्यवसायिक किस्म है। फ्लैमिश ब्यूटी किस्म सितंबर में पक कर तैयार होती है। स्टार क्रिमसन मध्यम पर्वतीय इलाकों के लिए अनुकूल है। काशमीरी नाशपाती नियमित रूप से अधिक फल देने वाली किस्म है। पैखम थ्रंपस की शैल लाइफ सबसे अधिक है और इसकी पैदावार कलम लगने के दूसरे साल ही आनी शुरू हो जाती है। इसके साथ ही कांफ्रेंस कानकार्ड और इटली की किस्म अपाटे फैटल की शैल्फ लाइफ अच्छी है और यह लेट वैरायटी है। इटली की किस्म कारमेन वैरायटी अर्ली वैरायटी में शामिल है, जो वार्टलेट से भी पहले मार्केट में आती है।
नाशपाती के रूट स्टॉक कैंथ व क्वींस पर लगाए जाते हैं। कैंथ पर पौधे की ग्रोथ अच्छी होती है और फल लेट आते हैं। क्वींस पर तैयार किया गया पौधा आकार में छोटा होता है और जल्दी पैदावार देता है। इस समय विश्व में नाशपाती की पैदावार रूट स्टॉक पर हो रही है। सिडलिंग पर इसे तैयार करना महंगा है। जिस भूमि की उपजाऊ शक्ति अच्छी हो, उसमें लगाए पौधों की बढ़ोतरी अधिक होती है। ऐसी जगह नाइट्रोजन युक्त खाद का प्रयोग कम करना चाहिए। नहीं तो पेड़ों में फूल की कलियां नहीं बनेगी। ऐसे पेड़ों में पोटाश व फास्फेट खाद की मात्रा बढ़ा देनी चाहिए। ये दोनों खादें फल की कलियों को बढ़ाने में सहायक होती है। नाशपाती में सेब की तरह ही खादें डाली जाती हैं।
परागण की समस्या और समाधान: नाशपाती की अधिकतर किस्में यदि अकेले लगाई जाएं तो फल कम लगते हैं। ऐसे में दोनाशपाती के रूट स्टॉक कैंथ व क्वींस पर लगाए जाते हैं। कैंथ पर पौधे की ग्रोथ अच्छी होती है और फल लेट आते हैं। क्वींस पर तैयार किया गया पौधा आकार में छोटा होता है और जल्दी पैदावार देता है। इस समय विश्व में नाशपाती की पैदावार रूट स्टॉक पर हो रही है। सिडलिंग पर इसे तैयार करना महंगा है। जिस भूमि की उपजाऊ शक्ति अच्छी हो, उसमें लगाए पौधों की बढ़ोतरी अधिक होती है। ऐसी जगह नाइट्रोजन युक्त खाद का प्रयोग कम करना चाहिए। नहीं तो पेड़ों में फूल की कलियां नहीं बनेगी। ऐसे पेड़ों में पोटाश व फास्फेट खाद की मात्रा बढ़ा देनी चाहिए। ये दोनों खादें फल की कलियों को बढ़ाने में सहायक होती है। नाशपाती में सेब की तरह ही खादें डाली जाती हैं।
यदि नया बगीचा लगाना हो तो परागणकर्ता किस्में लगाना जरूरी हैं। नाशपाती की मुख्य किस्में वार्टलेट कांफ्रेंस पैखम, बूरीबॉक्स, स्टार क्रिमसन आदि हैं। वार्टलेट के साथ बूरीबाक्स, विंटरनेलिस, पैखम व कांफ्र्रेंस को पोलीनाइजर के रूप में लगाना चाहिए। इसी तरह कांफ्रेंस के साथ वार्टलेट व बूरीबॉक्स, पैखम के साथ वार्टलेट, बूरीबाक्स फिर बूरीबाक्स के साथ वार्टलेट, विंटरनेलिस व कांफ्रेंस और स्टार क्रिमसन के साथ बूरीबाक्स, कांफ्रेंस, वार्टलेट व विंटरनेलिस को पोलीनाइजर के तौर पर लगाना चाहिए।लिए मिट्टी में पोषक तत्व फिर से लौट आते हैं।
कॉनकार्ड or डायनाड्यूकोमिक
कॉनकार्ड
आकार में लंबी इस किस्म की नाशपाती का फल दिखने में खूबसूरत है। यह किस्म इंग्लैंड में विकसित की गई थी। यूरोपीय देशों में इस किस्म की बहुत अधिक मांग है। इस किस्म की नाशपाती ड्रॉपिंग की समस्या से दूर है।
डायनाड्यूकोमिक
यह फ्रांस की किस्म है। इसका इतिहास दो सदी से भी अधिक का है। यह अगस्त के अंत में तैयार होती है। स्वाद में मिठास लिए यह किस्म आकार में बड़ी होती है। इसका रंग हल्का पीला है।
कारमैन
इस किस्म की नाशपाती तीन साल पहले हिंदोस्तान में आई है। इसे पहले 1989 में इटली में पैदा किया गया। वर्ष 2002 में इटली में इस नाशपाती ने धूम मचा दी थी। अगर इस किस्म को क्वींस रूट स्टॉक पर लगाया जाए तो इसकी सफलता दर काफी अच्छी रहती है। ये विलियम किस्म से बीस गुना अधिक पैदावार देती है। इटली में इस किस्म को लेकर क्रेज का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि वर्ष 2002 से 2004 तक के अंतराल में इसके डेढ़ करोड़ पौधे बागवानों ने खरीदे। यह किस्म अब पूरे यूरोप के अलावा एशिया के अधिकांश देशों में लोकप्रिय है।
Carmen Pear
नाशपाती क्षेत्रों मे उगाया जाने वाला मुख्य फल है। नाशपाती गर्म आद्र्र उपोष्ण मैदानी क्षेत्रों से लेकर शुष्क शीतोष्ण क्षेत्रों में सफलता से उगाई जा सकती है। इसकी खेती पर प्राय: बागवान ध्यान हीं देते हैं इसी कारण इसकी खेती कुछ सिमित क्षेंत्रों में ही की जा रही है। इसका मुख्य कारण इसकी अच्छी किस्मों का न होना कम भण्डारण क्षमता तथा यातायात की अच्छी सुविधांए न होना था परन्तु अब रंगदार व अच्छी किस्में व यातायात की अच्दी सुविधाएं होने पर बागवान नाशपाती की बागवानी की तरफ ध्यान दे रहे हैं। नाशपाती की तरफ अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है क्योंकि इससे ब्बिा बंद फल संरक्षित पदार्थ भी बनाए जा सकते हैं और इसके रख रखाव की ज्यादा जरूरत नहीं होती है। निचले व कम ऊँचाई वाले क्षेत्रों में गोला नाशपाती उगाई जा रही हे जिसमें अधिक उत्पादन के साथ-साथ बोरीयों में भरकर दूर मण्डीयों मे भी भेजा जा ाकता है। जलवायु:- मध्य पहाड़ी क्षेंत्रों और पहाड़ी क्षेत्रों में समुद्रतल से 600 से 2700 मीटर तक नाशपाती उगाई जा सकती हैं। इसके लिए 500 से 1500 घण्टे शीत तापमान होना आवश्यक है। जिन स्थानों में अधिक वर्ष होती है वे स्थान नाशपात के लिए उपयुक्त नहीं होते। गर्मीयों में 27 से 330 सै. तक तापमान वाले स्थानों पर नाशपाती खूब होती है।निचले क्षेत्रों मेंइसकी बागवानी उत्तर पूर्व दिशा वाले क्षेत्रों और ऊँचाई में दक्षिण पश्चिम दिशा के क्षेत्रों में की जानी चाहिए। ऊँचाई के क्षेत्रों में जहां हवा का ज्यादा प्रकोप हो वहां नाशपाती नहीं लगानी चाहिए क्योंकि वहां पर मधुमक्खियां अपना काम नहीं कर सकती है। बसन्त ऋतु में अधिक पाले कोहरे और ठण्ड से इसके फूल मर जाते है।
भूमि का चुनाव: नाशपाती के लिए गहरी भारी दोमट जिसमें नमी बनाए रखने की क्षमता हो उपयुकत है। भूमि में पानी के निकास का अच्छा प्रबन्ध होना आवश्यक है। रेतीली भूमि में नाशपाती को नहीं लगाना चाहिए। क्योंकि गर्मीयों में नमी की कमी हो जाती है और पौधे ठीक से नहीं पनप सकते। सेब की तुलना में नाशपाती के पौधों को पाानी लगनेसे कम चति होती है इसीलिए नाशपाती के पौधे निकनी व अधिक पानी वाली भूमि पर भी उगाए जा सकते है परन्तु जडों की अच्छी बढोतरी के लिए निचली सतह पर कंकर या पथरीली भूमि नहीं होनी चाहिए।
अनुमोदित किस्में: ऊँचे पर्वतीय क्षेत्र
1. अगेती किस्में: अर्ली चाईना, लेक्सटनस सुपर्व
2. मध्य मौसमी किस्में: वार्टलेट, रेड वार्टलेट, मैक्स रेड वार्टलेट, कलैप्स फेवरट, फलैमिस व्यूटी परागण कर्ता, स्टारक्रिमसन
3. पछेती किस्में: कान्फ्रेन्स (परागणकर्ता), डायने डयूकोमिस काश्मीरी नाशपाती।
मध्यवर्ती निचले क्षेत्र व घाटियां: पत्थर नाख, कीफर (परागणकर्ता) तथा चाईना नाशपाती
नाशपाती क्षेत्रों मे उगाया जाने वाला मुख्य फल है। नाशपाती गर्म आद्र्र उपोष्ण मैदानी क्षेत्रों से लेकर शुष्क शीतोष्ण क्षेत्रों में सफलता से उगाई जा सकती है। इसकी खेती पर प्राय: बागवान ध्यान हीं देते हैं इसी कारण इसकी खेती कुछ सिमित क्षेंत्रों में ही की जा रही है। इसका मुख्य कारण इसकी अच्छी किस्मों का न होना कम भण्डारण क्षमता तथा यातायात की अच्छी सुविधांए न होना था परन्तु अब रंगदार व अच्छी किस्में व यातायात की अच्दी सुविधाएं होने पर बागवान नाशपाती की बागवानी की तरफ ध्यान दे रहे हैं। नाशपाती की तरफ अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है क्योंकि इससे ब्बिा बंद फल संरक्षित पदार्थ भी बनाए जा सकते हैं और इसके रख रखाव की ज्यादा जरूरत नहीं होती है। निचले व कम ऊँचाई वाले क्षेत्रों में गोला नाशपाती उगाई जा रही हे जिसमें अधिक उत्पादन के साथ-साथ बोरीयों में भरकर दूर मण्डीयों मे भी भेजा जा ाकता है। जलवायु:- मध्य पहाड़ी क्षेंत्रों और पहाड़ी क्षेत्रों में समुद्रतल से 600 से 2700 मीटर तक नाशपाती उगाई जा सकती हैं। इसके लिए 500 से 1500 घण्टे शीत तापमान होना आवश्यक है। जिन स्थानों में अधिक वर्ष होती है वे स्थान नाशपात के लिए उपयुक्त नहीं होते। गर्मीयों में 27 से 330 सै. तक तापमान वाले स्थानों पर नाशपाती खूब होती है।निचले क्षेत्रों मेंइसकी बागवानी उत्तर पूर्व दिशा वाले क्षेत्रों और ऊँचाई में दक्षिण पश्चिम दिशा के क्षेत्रों में की जानी चाहिए। ऊँचाई के क्षेत्रों में जहां हवा का ज्यादा प्रकोप हो वहां नाशपाती नहीं लगानी चाहिए क्योंकि वहां पर मधुमक्खियां अपना काम नहीं कर सकती है। बसन्त ऋतु में अधिक पाले कोहरे और ठण्ड से इसके फूल मर जाते है।
भूमि का चुनाव: नाशपाती के लिए गहरी भारी दोमट जिसमें नमी बनाए रखने की क्षमता हो उपयुकत है। भूमि में पानी के निकास का अच्छा प्रबन्ध होना आवश्यक है। रेतीली भूमि में नाशपाती को नहीं लगाना चाहिए। क्योंकि गर्मीयों में नमी की कमी हो जाती है और पौधे ठीक से नहीं पनप सकते। सेब की तुलना में नाशपाती के पौधों को पाानी लगनेसे कम चति होती है इसीलिए नाशपाती के पौधे निकनी व अधिक पानी वाली भूमि पर भी उगाए जा सकते है परन्तु जडों की अच्छी बढोतरी के लिए निचली सतह पर कंकर या पथरीली भूमि नहीं होनी चाहिए।
अनुमोदित किस्में: ऊँचे पर्वतीय क्षेत्र
1. अगेती किस्में: अर्ली चाईना, लेक्सटनस सुपर्व
2. मध्य मौसमी किस्में: वार्टलेट, रेड वार्टलेट, मैक्स रेड वार्टलेट, कलैप्स फेवरट, फलैमिस व्यूटी परागण कर्ता, स्टारक्रिमसन
3. पछेती किस्में: कान्फ्रेन्स (परागणकर्ता), डायने डयूकोमिस काश्मीरी नाशपाती।
मध्यवर्ती निचले क्षेत्र व घाटियां: पत्थर नाख, कीफर (परागणकर्ता) तथा चाईना नाशपाती
नाशपाती परागण की समस्या और समाधान
नाशपाती की अधिकतर किस्में यदि अकेले लगाई जाएं तो फल कम लगते हैं। ऐसे में दोनाशपाती के रूट स्टॉक कैंथ व क्वींस पर लगाए जाते हैं। कैंथ पर पौधे की ग्रोथ अच्छी होती है और फल लेट आते हैं। क्वींस पर तैयार किया गया पौधा आकार में छोटा होता है और जल्दी पैदावार देता है। इस समय विश्व में नाशपाती की पैदावार रूट स्टॉक पर हो रही है। सिडलिंग पर इसे तैयार करना महंगा है। जिस भूमि की उपजाऊ शक्ति अच्छी हो, उसमें लगाए पौधों की बढ़ोतरी अधिक होती है। ऐसी जगह नाइट्रोजन युक्त खाद का प्रयोग कम करना चाहिए। नहीं तो पेड़ों में फूल की कलियां नहीं बनेगी। ऐसे पेड़ों में पोटाश व फास्फेट खाद की मात्रा बढ़ा देनी चाहिए। ये दोनों खादें फल की कलियों को बढ़ाने में सहायक होती है। नाशपाती में सेब की तरह ही खादें डाली जाती हैं। यदि नया बगीचा लगाना हो तो परागणकर्ता किस्में लगाना जरूरी हैं। नाशपाती की मुख्य किस्में वार्टलेट कांफ्रेंस पैखम, बूरीबॉक्स, स्टार क्रिमसन आदि हैं।
वार्टलेट के पोलीनाइजर के रूप में लगाना चाहिए
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साथ बूरीबाक्स, विंटरनेलिस, पैखम व कांफ्र्रेंस को पोलीनाइजर के रूप में लगाना चाहिए। इसी तरह कांफ्रेंस के साथ वार्टलेट व बूरीबॉक्स, पैखम के साथ वार्टलेट, बूरीबाक्स फिर बूरीबाक्स के साथ वार्टलेट, विंटरनेलिस व कांफ्रेंस और स्टार क्रिमसन के साथ बूरीबाक्स, कांफ्रेंस, वार्टलेट व विंटरनेलिस को पोलीनाइजर के तौर पर लगाना चाहिए।
कलस्टर बनाने पर ही मिलेंगे साल में फल देने वाले सेब के पौधे जनवरी में बांटे जाएंगे फैदर्ड प्लांट, 300 में मिलेगा सेब का पौधा शिमला जिला में जागरुक हुए बागवान, बन चुके हैं 82 कलस्टर
हिमाचल में एक साल में फल देने वाले विदेशी किस्म के फैदर्ड प्लांट बागवानों को कलस्टर बनाने पर ही दिए जाएंगे। वल्र्ड बैंक की ओर से जारी गाइड लाइन में इस बारे में स्पष्ट तौर पर निर्देश जारी किए हैं। ऐसे में बिना कलस्टर बनाए विदेशी किस्म के फैदर्ड प्लांट खरीदने का सपना पाल रहे लोगों के लिए यह राहत भरी खबर नहीं है। बागवानी विभाग नई साल से बागवानों को फैदर्ड प्लांट बांटेगा। सेब के एक प्लांट की कीमत 300 रुपये तय की गई है। वल्र्ड बैंक की गाइड लाइन के मुताबिक कलस्टर बनाने पर प्रति बागवान को कम से कम 50 पौधे दिए जाएंगे। अगर किसी बागवान के पास ज्यादा जमीन है तो ऐसे लोगों को इससे अधिक पौधे भी दिए जा सकते हैं। विदेशी किस्मों के पौधें लगाकर अब किसान एक साल बाद ही सेब सहित चैरी, नाशपाती व पलम की पैदावार ले सकेंगे। नई साल में जनवरी माह से बागवानी विभाग विदेशी किस्मों 7.50 लाख फैदर्ड प्लांट बांटने जा रहा है। इसके लिए इन दिनों वल्र्ड बैंक प्रोजेक्ट के तहत बागवानों के कलस्टर बनाए जा रहे हैं। इस प्रोजेक्ट के तहत बागवानों को बंूद-बूंद सिंचाई, एंटी हेलगन व स्टेकिंग भी सुविधा दी जाएगी।
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पानी का सोर्स होना जरुरी:
प्रदेश के सेब बाहुल क्षेत्रों में कलस्टर बनाने की कोई सीमा तय नहीुं की गई है। बागवान अपनी सुविधा के मुताबिक कलस्टर बना सकते हैं, लेकिन इसके लिए गाइड लाइन में एक शर्त जोड़ी गई है कि जिन क्षेत्रों में कलनस्टर बनाए जाने हैं, वहां पर पानी का सोर्स मौजूद होना चाहिए। इसमें वाटर कैचमेंट का भी प्रावधान किया गया है। जहां लोगों के पास पानी के इस तरह के सोर्स हैं वहां बागवान कलस्टर बना सकते हैं। प्रदेश में सबसे अधिक सेब पैदावार करने वाले शिमला जिला में अब तक 82 कलस्टर बन चुके हैं। 19 नवंबर को ठियोग के तहत पडऩे वाले चियोग में बागवानी विभाग ने कलस्टर को लेकर बागवानों को डेमोस्ट्रेशन भी दी। इस दौरान शिमला और किन्नौर जिला के अधिकारियों को डेमोस्ट्रेशन दिया गया। इस दौरान बागवानी विभाग के प्रधान सचिव जेसी शर्मा, निदेशक डीपी भंगालिया, सिंचाई विशेषज्ञ डॉ. एचआर शर्मा सहित शिमला जिला के सभी एसएमएस, एसओडी व किन्नौर जिला के निचार खंड के बागवानी के अधिकारी मौजूद थे।
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पानी का सोर्स होना जरुरी:
प्रदेश के सेब बाहुल क्षेत्रों में कलस्टर बनाने की कोई सीमा तय नहीुं की गई है। बागवान अपनी सुविधा के मुताबिक कलस्टर बना सकते हैं, लेकिन इसके लिए गाइड लाइन में एक शर्त जोड़ी गई है कि जिन क्षेत्रों में कलनस्टर बनाए जाने हैं, वहां पर पानी का सोर्स मौजूद होना चाहिए। इसमें वाटर कैचमेंट का भी प्रावधान किया गया है। जहां लोगों के पास पानी के इस तरह के सोर्स हैं वहां बागवान कलस्टर बना सकते हैं। प्रदेश में सबसे अधिक सेब पैदावार करने वाले शिमला जिला में अब तक 82 कलस्टर बन चुके हैं। 19 नवंबर को ठियोग के तहत पडऩे वाले चियोग में बागवानी विभाग ने कलस्टर को लेकर बागवानों को डेमोस्ट्रेशन भी दी। इस दौरान शिमला और किन्नौर जिला के अधिकारियों को डेमोस्ट्रेशन दिया गया। इस दौरान बागवानी विभाग के प्रधान सचिव जेसी शर्मा, निदेशक डीपी भंगालिया, सिंचाई विशेषज्ञ डॉ. एचआर शर्मा सहित शिमला जिला के सभी एसएमएस, एसओडी व किन्नौर जिला के निचार खंड के बागवानी के अधिकारी मौजूद थे।
डीपी भंगालिया
वल्र्ड बैंक की गाइड लाइन के मुताबिक कलस्टर बनाने पर ही बागवानों को विदेशी किस्म के फैदर्ड प्लांट दिए जाएंगे। शिमला जिला में अब तक 82 कलस्टर बन चुके हैं। इसके अलावा अन्य जिलों में भी कलस्टर बनाए जा रहे हैं। जहां सिंचाई की व्यवस्था है। बागवान कलस्टर बनाकर सुविधा का लाभ उठा सकते हैं।
डीपी भंगालिया, निदेशक बागवानी विभाग।
डीपी भंगालिया, निदेशक बागवानी विभाग।
गेल गाला सेल्फ पोलीनाइजर वैरायटी है
गेल गाला सेल्फ पोलीनाइजर वैरायटी है, लिहाजा यह बागीचों में पोलीनेशन का काम भी करती है। इसके लिए जरूरी यह है कि बागीचे में गेल गाला के पौधों की संख्या अन्य स्पर वैरायटियों की 35 फीसदी होनी चाहिए। स्पर की यदि बागीचे में नई प्लांटेशन की जा रही हो तो दो लाइनों के बाद तीसरी लाइन पूरी तरह से गेल गाला की लगाएं। गेल गाला चट्टानी जगह में भी इसकी ग्रोथ अच्छी है। कुछ-कुछ पथरीली भूमि पर गेल गाला अधिक मिट्टी वाली भूमि से अधिक अच्छा फलता है। बाजार में पिछले तीन साल से चीन के फ्यूजी सेब की धमक के बाद रेड गोल्ड की डिमांड कम हुई है। ऐसे में फ्यूजी को टक्कर देने के लिए गेल गाला ही कारगर है। तभी फ्यूजी किस्म को पीछे धकेला जा सकता है। पुरानी किस्मों को अलविदा कहते हुए विदेशी किस्मों को उगाना ही समझदारी है। इस साल यानी वर्ष 2016 में गाला की सेब की क्वालिटी इतनी बेहतर थी कि अहमदाबाद और जयपुर की मंडियों के कारोबारियों ने उनके बागीचे में ही आकर सेब खरीदा है। दाम सुनकर चौंकने की तबीयत होती है। दाम मिल रहे हैं-130 रुपए प्रति किलो।
नाशपाती:-रूट स्टॉक के जरिए नाशपाती की विदेशी किस्मों
हिमाचल प्रदेश में सेब के बाद पैदावार के लिहाज से नाशपाती का नंबर है। कुल्लू जिला में इसका उत्पादन अधिक होता है। जैसे-जैसे मार्केट में नाशपाती की डिमांड बढ़ी है, बागवान इसकी पैदावार की तरफ झुके हैं। प्रदेश में नाशपाती की उन्हीं किस्मों को उगाना फायदेमंद है, जिसकी शैल्फ लाइफ अच्छी हो। चूंकि नाशपाती से डिब्बाबंद पदार्थ भी तैयार किए जा सकते हैं, इसलिए इसकी पैदावार में बागवानों को भी लाभ है। जागरुकता बढऩे के साथ ही बागवान सेब के बागीचों में खाली जगह पर नाशपाती की सघन बागवानी कर रहे हैं। बहुत से प्रगतिशील बागवानों ने रूट स्टॉक के जरिए नाशपाती की विदेशी किस्मों को उगाया है। एक अन्य कारण है, जिसके चलते बागवान नाशापाती उगा रहे हैं। अब प्रदेश में ही सीए स्टोर की सुविधा उपलब्ध है। इस तरह ऑफ सीजन में भी बागवान इसकी पैदावार कर लाभ कमा रहे हैं। ऊंचाई वाले इलाकों में नाशापाती की अगेती किस्मों में अर्ली चाइना, लेक्सट्नस सुपर्ब आदि वैरायटियां उगाई जाती हैं। मध्य मौसमी किस्मों में वार्टलेट, रेड वार्टलेट, मैक्स रेड वार्टलेट, क्लैपस फेवरेट आदि शामिल हैं।
पछेती किस्मों में डायने ड्यूकोमिस व कश्मीरी नाशपाती आती है। इसी तरह मध्यवर्ती निचले इलाकों में पत्थर नाख, कीफर (परागणकर्ता) व चाइना नाशपाती है। अर्ली चाइना नाशपाती सबसे पहले पकने वाली किस्म है। यह जून महीने में पककर तैयार हो जाती है। लेक्सट्नस सुपर्ब नाशपाती अधिक पैदावार देने वाली किस्म है। वार्टलेट किस्म सबसे लोकप्रिय है। रेड वार्टलेट व्यवसायिक किस्म है। फ्लैमिश ब्यूटी किस्म सितंबर में पक कर तैयार होती है। स्टार क्रिमसन मध्यम पर्वतीय इलाकों के लिए अनुकूल है। काशमीरी नाशपाती नियमित रूप से अधिक फल देने वाली किस्म है। पैखम थ्रंपस की शैल लाइफ सबसे अधिक है और इसकी पैदावार कलम लगने के दूसरे साल ही आनी शुरू हो जाती है। इसके साथ ही कांफ्रेंस कानकार्ड और इटली की किस्म अपाटे फैटल की शैल्फ लाइफ अच्छी है और यह लेट वैरायटी है। इटली की किस्म कारमेन वैरायटी अर्ली वैरायटी में शामिल है, जो वार्टलेट से भी पहले मार्केट में आती है।
नाशपाती के रूट स्टॉक कैंथ व क्वींस पर लगाए जाते हैं। कैंथ पर पौधे की ग्रोथ अच्छी होती है और फल लेट आते हैं। क्वींस पर तैयार किया गया पौधा आकार में छोटा होता है और जल्दी पैदावार देता है। इस समय विश्व में नाशपाती की पैदावार रूट स्टॉक पर हो रही है। सिडलिंग पर इसे तैयार करना महंगा है। जिस भूमि की उपजाऊ शक्ति अच्छी हो, उसमें लगाए पौधों की बढ़ोतरी अधिक होती है। ऐसी जगह नाइट्रोजन युक्त खाद का प्रयोग कम करना चाहिए। नहीं तो पेड़ों में फूल की कलियां नहीं बनेगी। ऐसे पेड़ों में पोटाश व फास्फेट खाद की मात्रा बढ़ा देनी चाहिए। ये दोनों खादें फल की कलियों को बढ़ाने में सहायक होती है। नाशपाती में सेब की तरह ही खादें डाली जाती हैं।
परागण की समस्या और समाधान: नाशपाती की अधिकतर किस्में यदि अकेले लगाई जाएं तो फल कम लगते हैं। ऐसे में दोनाशपाती के रूट स्टॉक कैंथ व क्वींस पर लगाए जाते हैं। कैंथ पर पौधे की ग्रोथ अच्छी होती है और फल लेट आते हैं। क्वींस पर तैयार किया गया पौधा आकार में छोटा होता है और जल्दी पैदावार देता है। इस समय विश्व में नाशपाती की पैदावार रूट स्टॉक पर हो रही है। सिडलिंग पर इसे तैयार करना महंगा है। जिस भूमि की उपजाऊ शक्ति अच्छी हो, उसमें लगाए पौधों की बढ़ोतरी अधिक होती है। ऐसी जगह नाइट्रोजन युक्त खाद का प्रयोग कम करना चाहिए। नहीं तो पेड़ों में फूल की कलियां नहीं बनेगी। ऐसे पेड़ों में पोटाश व फास्फेट खाद की मात्रा बढ़ा देनी चाहिए। ये दोनों खादें फल की कलियों को बढ़ाने में सहायक होती है। नाशपाती में सेब की तरह ही खादें डाली जाती हैं।
यदि नया बगीचा लगाना हो तो परागणकर्ता किस्में लगाना जरूरी हैं। नाशपाती की मुख्य किस्में वार्टलेट कांफ्रेंस पैखम, बूरीबॉक्स, स्टार क्रिमसन आदि हैं। वार्टलेट के साथ बूरीबाक्स, विंटरनेलिस, पैखम व कांफ्र्रेंस को पोलीनाइजर के रूप में लगाना चाहिए। इसी तरह कांफ्रेंस के साथ वार्टलेट व बूरीबॉक्स, पैखम के साथ वार्टलेट, बूरीबाक्स फिर बूरीबाक्स के साथ वार्टलेट, विंटरनेलिस व कांफ्रेंस और स्टार क्रिमसन के साथ बूरीबाक्स, कांफ्रेंस, वार्टलेट व विंटरनेलिस को पोलीनाइजर के तौर पर लगाना चाहिए।
पछेती किस्मों में डायने ड्यूकोमिस व कश्मीरी नाशपाती आती है। इसी तरह मध्यवर्ती निचले इलाकों में पत्थर नाख, कीफर (परागणकर्ता) व चाइना नाशपाती है। अर्ली चाइना नाशपाती सबसे पहले पकने वाली किस्म है। यह जून महीने में पककर तैयार हो जाती है। लेक्सट्नस सुपर्ब नाशपाती अधिक पैदावार देने वाली किस्म है। वार्टलेट किस्म सबसे लोकप्रिय है। रेड वार्टलेट व्यवसायिक किस्म है। फ्लैमिश ब्यूटी किस्म सितंबर में पक कर तैयार होती है। स्टार क्रिमसन मध्यम पर्वतीय इलाकों के लिए अनुकूल है। काशमीरी नाशपाती नियमित रूप से अधिक फल देने वाली किस्म है। पैखम थ्रंपस की शैल लाइफ सबसे अधिक है और इसकी पैदावार कलम लगने के दूसरे साल ही आनी शुरू हो जाती है। इसके साथ ही कांफ्रेंस कानकार्ड और इटली की किस्म अपाटे फैटल की शैल्फ लाइफ अच्छी है और यह लेट वैरायटी है। इटली की किस्म कारमेन वैरायटी अर्ली वैरायटी में शामिल है, जो वार्टलेट से भी पहले मार्केट में आती है।
नाशपाती के रूट स्टॉक कैंथ व क्वींस पर लगाए जाते हैं। कैंथ पर पौधे की ग्रोथ अच्छी होती है और फल लेट आते हैं। क्वींस पर तैयार किया गया पौधा आकार में छोटा होता है और जल्दी पैदावार देता है। इस समय विश्व में नाशपाती की पैदावार रूट स्टॉक पर हो रही है। सिडलिंग पर इसे तैयार करना महंगा है। जिस भूमि की उपजाऊ शक्ति अच्छी हो, उसमें लगाए पौधों की बढ़ोतरी अधिक होती है। ऐसी जगह नाइट्रोजन युक्त खाद का प्रयोग कम करना चाहिए। नहीं तो पेड़ों में फूल की कलियां नहीं बनेगी। ऐसे पेड़ों में पोटाश व फास्फेट खाद की मात्रा बढ़ा देनी चाहिए। ये दोनों खादें फल की कलियों को बढ़ाने में सहायक होती है। नाशपाती में सेब की तरह ही खादें डाली जाती हैं।
परागण की समस्या और समाधान: नाशपाती की अधिकतर किस्में यदि अकेले लगाई जाएं तो फल कम लगते हैं। ऐसे में दोनाशपाती के रूट स्टॉक कैंथ व क्वींस पर लगाए जाते हैं। कैंथ पर पौधे की ग्रोथ अच्छी होती है और फल लेट आते हैं। क्वींस पर तैयार किया गया पौधा आकार में छोटा होता है और जल्दी पैदावार देता है। इस समय विश्व में नाशपाती की पैदावार रूट स्टॉक पर हो रही है। सिडलिंग पर इसे तैयार करना महंगा है। जिस भूमि की उपजाऊ शक्ति अच्छी हो, उसमें लगाए पौधों की बढ़ोतरी अधिक होती है। ऐसी जगह नाइट्रोजन युक्त खाद का प्रयोग कम करना चाहिए। नहीं तो पेड़ों में फूल की कलियां नहीं बनेगी। ऐसे पेड़ों में पोटाश व फास्फेट खाद की मात्रा बढ़ा देनी चाहिए। ये दोनों खादें फल की कलियों को बढ़ाने में सहायक होती है। नाशपाती में सेब की तरह ही खादें डाली जाती हैं।
यदि नया बगीचा लगाना हो तो परागणकर्ता किस्में लगाना जरूरी हैं। नाशपाती की मुख्य किस्में वार्टलेट कांफ्रेंस पैखम, बूरीबॉक्स, स्टार क्रिमसन आदि हैं। वार्टलेट के साथ बूरीबाक्स, विंटरनेलिस, पैखम व कांफ्र्रेंस को पोलीनाइजर के रूप में लगाना चाहिए। इसी तरह कांफ्रेंस के साथ वार्टलेट व बूरीबॉक्स, पैखम के साथ वार्टलेट, बूरीबाक्स फिर बूरीबाक्स के साथ वार्टलेट, विंटरनेलिस व कांफ्रेंस और स्टार क्रिमसन के साथ बूरीबाक्स, कांफ्रेंस, वार्टलेट व विंटरनेलिस को पोलीनाइजर के तौर पर लगाना चाहिए।
Root borer -प्रीनुस सेब जड़ छिद्रक
प्रीनुस सेब जड़ छिद्रक
परिचय
यह हिमाचल प्रदेश मे सेब के बगीचे में सामान्य रूप से पाए जाने वाली एक बहुत बड़ी भृंग है। यह भृंग जमीन के ऊपर हमला नहीं करती परंतु यह सेब के पेड़ की जड़ों को खाती है
इस बोरर का गंभीर संक्रमण पेड़ की मौत का कारण बन सकता है। यह एक रूट बोरिंग कीट है जिसका लार्वा पेड़ की अनेक क़िस्मों की जड़ों का सेवन करता है जो अक्सर पेड़ों की मौत का कारण बनता है । कीटनाशक अनुप्रयोग इनकी आबादी को कम करने में अप्रभावी पाए गये है। इनका रंग गहरे भूरे रंग से लेकर लगभग पूरा काला होता है। इन बोरेर्स के लार्वा कीड़ों मे सबसे बड़े हैं, जो की पेड़ो की जड़ों पर हमला करता है । ये स्फेद और हल्के पीले रंग के होते हैं और इनके बहुत छोटे पैरों की तीन जोड़ी होती है।
जीवविज्ञान
Larva
युवा लार्वा रूप में 6 इंच तक लंबे हो सकते है जो वृक्ष की जड़ों को खोजने के लिए मिट्टी में सुरंगों बनाते हैं। इनका जीवन काल 3-4 साल का होता है। युवा लार्वा छोटे व्यास वाली जड़ों का भोजन करतें है और अंत में परिपक्व लार्वा के रूप में पेड़ के क्राउन (ताने का मध्य ) तक पहुँचते है । गर्मियों के दौरान,लार्वा 6-18 इंच की गहराई के आसपास फ़ीड करते हैं और सर्दियों में वे मिट्टी की सतह के नीचे लगभग 36 इंच तक उतरजाते हैं । प्रीनुस सेब के पेड़ के बोरर का वयस्क एक बड़ी बीटल होता है जो लंबाई मे 1- 3 इंच तक हो सकते है।
वयस्क भृंग बीटल वसंत ऋतु के आख़िर और गर्मियों की शुरुआत में मिट्टी से उभरने लगते है और अक्सर रात में रोशनी की तरफ़ आकर्षित होते हैं। दिन मे वयस्क खुद को पेड़ के मलबे या किसी जैविक पदार्थ के नीचे छुपाती है । वयस्क मादा 7-10 दिन जीती हैं और वयस्क नर 5-7 दिन जीते हैं । गर्मियों में मादा जड़ों पर या जड़ों से सटी मिट्टी में अंडे देती हैं । एक एकल मादा उसके 15-20 दिन के जीवन काल के दौरान 100-200 अण्डे दे सकती हैं।
नुकसान
प्रीनुस जड़ बोरेर्स विशेष रूप से जड़ों के बोरार हैं और केवल पौधों की जड़ों पर भोजन करते हैं क्षति लार्वा दवारा सेब के पेड़ की जड़ों को खाए जाने से होती है जड़ों को क्षति होने से पेड़ों मे पानी और पोषक तत्व के प्रवेश में तेज गिरावट आ जाती है गंभीर संक्रमण सीधे सेब के पेड़ को मार सकता है और पुराने पेड़ों को गिरने के लिए अतिसंवेदनशील बनाते हैं।
निगरानी
वयस्क भृंग पर प्रकाश जाल के साथ नजर रखी जा सकती है। भृंग आम तौर पर जून से अगस्त में सूर्यास्त के बाद उड़ान भरते है। इन लार्वा को पेड़ के तने के चारों ओर 5-10 इंच गहरी मिट्टी में देखा जा सकता है।
मिट्टी को हटा कर जड़ों में संक्रमण के की खोज की जा सकती है। आमतौर पर, इस बोरर से क्षतिग्रस्त पेड़ों पर पीली पत्तियों होने के संकेत होते है और तेज़ गर्मियों के दौरान मर सकते हैं।
ADULT BEETLE
नियंत्रण
जैविक नियंत्रण:
इसकी रोकथाम का एक मात्र रास्ता नियंत्रण है। अपने बगीचे को घास और अन्य कार्बनिक पदार्थ से मुक्त रखें । इस तरह बोरार को अपने प्राकृतिक शिकारियों से छिपने का मौका नहीं मिलता।
अपने पेड़ों को स्वास्थ्य रखें और उन्हें तनाव से मुक्त रखें। बहुत ज़यादा पीड़ित पेड़ों को फिर से स्वस्थ नहीं किया जा सकता इस लिए उन्हें हटा और जला देने चाहिए। गर्मियों मे वयस्क भरींगों को बगीचे में प्रकाश जाल रखकर मारा जा सकता है। बेऔवेरिया बस्सियाना की तरह किसी भी जैविक कीटनाशक के सराबोर आवेदन भी प्रभावी पाया गया है।
रासायनिक नियंत्रण:
प्रीनुस एप्पल रूट बोरेर्स के लिए कोई भी पंजीकृत कीटनाशक नही है। ईमिदक्लोप्रड की तरह किसी भी प्रणालीगत कीटनाशक के प्रयोग से युवा लार्वा जो जड़ों पर होते हैं, उनके प्रभंदन मे मदद मिल सकती है। यह निचली ट्रंक में तैनात पुराने लार्वा को नियंत्रित नहीं कर सकता। प्रतिवर्ष अगर ईमिदक्लोप्रड का इस्तेमाल किया जाए तो लार्वा आबादी को नियंत्रित कर सकते हैं। च्लोरपयरीफोस की तरह अन्य कीटनाशकों से इन लार्वा को अंडा देने से रोका सकते है । अगर ताजा कीटनाशक अवशेष निचली ट्रंक पर मौजूद हो, लेकिन इस से जड़ों पर लार्वा की आबादी को नियंत्रित नहीं किया जा सकता है।
कई वर्षों में प्रणालीगत कीटनाशक का इस्तेमाल लार्वा आबादी को दबाने के लिए एक मात्र रास्ता होता है।
हिमाचल में विदेशी पौधों ने बिगाड़ा पर्यावरण संतुलन
पर्यावरण प्रदूषण खुशहाल जीवन के लिए किसी बड़े खतरे से कम नहीं है. पेड़-पौधे पर्यावरण संरक्षण में सबसे अहम भूमिका निभाते हैं लेकिन अगर वही पेड़-पौधे पर्यावरण के लिए खतरा बन जाएं तो शायद किसी को भी यकीन न हो लेकिन यकीन करना पड़ेगा, अध्ययन के निष्कर्ष तो यही बता रहे हैं. हिमाचल में करीब 500 प्रजातियां विदेशी पेड़-पौधों की है. शिमला में 190 विदेशी प्रजातियां मौजूद हैं. ऐसे पेड़ जमीन से पानी जरूरत से ज्यादा सोखते है वहीं ऐसे पौधे पशुओं के स्वास्थ्य को भी नुकसान पहुंचा रहे हैं. वन विभाग के प्रमुख वन वरण्यपाल संजीव पांडेय ने कहा कि पॉपुलर, सफेदा, लैंटाना ऐसी कई प्रजातियां हैं जो स्थानीय पर्यावरण के उपयुक्त नहीं हैं.
पौधों पर कॉपर ऑक्सीक्लोराईड या कॉपर हाईड्रोऑक्साईड का छिडक़ाव
तुड़ान के बाद शाखाओं को एकत्र कर लें। पौधों पर कॉपर ऑक्सीक्लोराईड या कॉपर हाईड्रोऑक्साईड (600 ग्राम प्रति 200 लीटर पानी में) के घोल का छिडक़ाव तुड़ाई के बाद 15-20 दिन के भीतर करें। बागीचे में रोग का अधिक प्रकोप होने की स्थिति में यही घोल फरवरी-मार्च में कली सूजन अवस्था पर फिर छिडक़ें। गले-सड़े व जमीन पर गिरे फलों को दबा कर नष्ट कर दें क्योंकि इनके उपर कैंकर कवक निर्वाह करते हैं।
जेरोमाइन (इटली)
विवरण व खूबियां:
इटली की यह किस्म लोअर बैल्ट में स्कारलेट स्पर टू (अमेरिका) की विकल्प साबित हो सकती है। कारण यह है कि स्कारलेट स्पर टू में कई स्थानों पर फल पर रस्टिंग या किसी वॉयरस की शिकायत आ रही है। ऐसे में कई बागवान अमेरिकी स्कारलेट स्पर टू को लगाने से गुरेज कर रहे हैं। जेरोमाइन का इस साल का जो फल का सैंपल आया है, वो रंग व आकार में स्कारलेट स्पर टू के मुकाबले कहीं उत्तम है। फिलहाल यह देखना है कि आने वाले समय में यह हिमाचल में कैसा रिस्पांस देती है। इस पर काम होना बाकी है। फिर भी फस्र्ट इंप्रेशन अच्छा है।
रेड विलॉक्स
विवरण व खूबियां: सेब की इटली की यह किस्म हिमाचल प्रदेश में वर्ष 2012 के अंत में चलन में आई। यह सेमी स्पर किस्म है, लिहाजा यह प्रदेश के ऊंचाई वाले इलाकों व मिडल बैल्ट में कामयाब हो सकती है। इसका रंग गहरा लाल है और आकार में यह सेब लंबा है। इस साल यानी जुलाई 2014 में आए सैंपल से यह अनुमान लगाया जा रहा है कि यह वैरायटी जल्द ही लोकप्रिय हो जाएगी।
RJ Suraj Chandel
मेरा विचार :-
मैंने भी 2016 में रेड विलोक्स के कुछ पोधे लगाये है 2 साल बाद आपको बताऊंगा क्या ये वैरायटी मतियाना या आस पास के इलाको में चल सकती है |
RJ Suraj Chandel
मेरा विचार :-
मैंने भी 2016 में रेड विलोक्स के कुछ पोधे लगाये है 2 साल बाद आपको बताऊंगा क्या ये वैरायटी मतियाना या आस पास के इलाको में चल सकती है |
मदर ट्री;-अच्छी और स्वस्थ कलमें
नए पौधों में कलम हमेशा मदर-ट्री से ही लेनी चाहिए। जिस पौधे से सेब की फसल न लेकर केवल कलमों के लिए स्टिक तैयार करते हैं, उसे मदर ट्री कहा जाता है। विदेशों में नर्सरी और बागवान एक ब्लॉक मदर प्लांट के रूप में तैयार करते हैं। इस ब्लॉक से वे केवल नर्सरी के लिए कलम लेते हैं ताकि सेब की क्वालिटी एक समान रह सके। प्रदेश में बागवान फल लगने वाले पौधों से कलम लेकर ग्राफ्टिंग करते हैं, जो सही नहीं है। अगर बागवान फसल लगे पौधे से कलम लेते हैं तो फ्रूट में वेरिएशन आने की संभावनाएं रहती हैं। सेब की क्ववलिटी अच्छी हो, इसके लिए बागवान अपने बागीचों में एक मदर प्लांट जरूर तैयार करें ताकि बागीचे में अच्छी और स्वस्थ कलमें ले सकें।
तनामूलसंधि विगलन रोग ….. Root Roat in apple plant
इस रोग के लक्षण पौधों के तनामूलसंधि या शिखर भाग पर दिखाई देते हैं। आरम्भ में संक्रमण प्राय: पौधे के जमीन के साथ लगते हुए हिस्से में तने की छाल पर होता है व सांकुर टहनी को प्रभावित करता है। रोग्रस्त भाग पर भूरे, खुरदरे धब्बे दिखाई देते हैं जो साधारणत: अण्डाकार व कभी-कभी अनियमित आकार के भी हो सकते हैं। संक्रमित भागों में नम रिसाव देखा जा सकता है। रोग तने क ऊपर व नीचे की दिशाओं में शीघ्रता से फैलकर पौधेें के चारों ओर कत्थई से भूरे लाल रंग का घेरा बना देता है। रोग्रस्त छाल सूख कर भूरे कैंकर के रूप में दिखाई देती है। रोग्रस्त पौधों की पत्तियां पीली व उनकी शिराएं-किनारे हल्के लाल रंग के हो जाते हैं। बरसात के मौसम में रोगी पौधों की ऊपरी शाखाओं में हल्के बैंगनी-लाल रंग की झलक वाली पत्तियां दिखाई देती हैं। रोगी पौधें के फल आकार में छोटे व समय से पूर्व ही लाल हो जातें हैं। कभी-कभी इस रोग का संक्रमण फलों पर भी दिखाई देता है और फल भण्डारण से पहले या भण्डारगृह में सड़ जाते हैं।
रासायनिक उपाय
मार्च व सितम्बर माह में पौधे के तने के चारों ओर 15 से 20 फुट के क्षेत्र में मैन्कोजैब (800 ग्राम प्रति 200 लीटर पानी)या कॉपर ऑक्सीक्लोराइड (1 किलो ग्राम प्रति 200 लीटर पानी) नामक फफूंदनाशकों का घोल बनाकर डालें। यह दवाई कम से कम 15 से 20 सेंटिमीटर तक मिटटी में पहुंचनी चाहिए। इसके लिए प्राय: 20 से 25 लीटर दवाई का घोल प्रति पौधा डाला जाना आवश्यक है। अधिक संक्रमण होने पर रिडोमिल एम.जैड.(500 ग्राम प्रति 200 लीटर पानी)नामक फफंूदनाशक का प्रयोग करें।
मार्च व सितम्बर माह में पौधे के तने के चारों ओर 15 से 20 फुट के क्षेत्र में मैन्कोजैब (800 ग्राम प्रति 200 लीटर पानी)या कॉपर ऑक्सीक्लोराइड (1 किलो ग्राम प्रति 200 लीटर पानी) नामक फफूंदनाशकों का घोल बनाकर डालें। यह दवाई कम से कम 15 से 20 सेंटिमीटर तक मिटटी में पहुंचनी चाहिए। इसके लिए प्राय: 20 से 25 लीटर दवाई का घोल प्रति पौधा डाला जाना आवश्यक है। अधिक संक्रमण होने पर रिडोमिल एम.जैड.(500 ग्राम प्रति 200 लीटर पानी)नामक फफंूदनाशक का प्रयोग करें।
जैविक उपाय
1 जीवाणु जेसे एन्टैरोबैक्टर एरोजीनस, सयूडोमोनास पुटिडा व बैसीलिस सबटीलिस इस रोग को कम करने में प्रभावशली पाए गए हैं। टाइकोडरमा फफूंद की कुछ प्रजातियां जेसे विरिडर, लोंगीब्रैकेटम, वाइरान्स हरजानियम भी इस रोग के नियंत्रण में उपयोगी सिद्घ हुई हैं।
2 मूलवृन्त जैसे एम-4, एम-9, एम. एम-115, मैलस प्रूनिफोलिया तथा क्रेब एप्पल इस रोग की प्रतिरोधी किस्में हैं।
3 सरसों की खली व दरेक के बीज या पत्ते , बाणा के पत्तों का प्रयोग भी रोग केकम करने में उपयोगी सिद्घ हुए हैं।
4 सरसों व गैंदा क पौधों की मल्चिंग भी इस रोग को कम करती है।
1 जीवाणु जेसे एन्टैरोबैक्टर एरोजीनस, सयूडोमोनास पुटिडा व बैसीलिस सबटीलिस इस रोग को कम करने में प्रभावशली पाए गए हैं। टाइकोडरमा फफूंद की कुछ प्रजातियां जेसे विरिडर, लोंगीब्रैकेटम, वाइरान्स हरजानियम भी इस रोग के नियंत्रण में उपयोगी सिद्घ हुई हैं।
2 मूलवृन्त जैसे एम-4, एम-9, एम. एम-115, मैलस प्रूनिफोलिया तथा क्रेब एप्पल इस रोग की प्रतिरोधी किस्में हैं।
3 सरसों की खली व दरेक के बीज या पत्ते , बाणा के पत्तों का प्रयोग भी रोग केकम करने में उपयोगी सिद्घ हुए हैं।
4 सरसों व गैंदा क पौधों की मल्चिंग भी इस रोग को कम करती है।
रॉयल के पेड़ छांटे और उन पर स्पर किस्मों की ग्राफ्टिंग शुरू
रॉयल के पुराने पेड़ फिर से पहले जैसी शानदार प्रोडक्शन नहीं दे सकते। बागीचे में पुराने रॉयल के पेड़ छांटे और उन पर स्पर किस्मों की ग्राफ्टिंग शुरू की। फिर इन्हें रॉयल के पेड़ों पर टॉप व स्किन ग्राफ्ट किया। टॉप ग्राफ्टिंग के बजाय रॉयल पर स्किन ग्राफ्टिंग अधिक मुफीद है। दो साल के इस अभियान में संजीव नेगी को कई अनुभव हुए। कैंकर से बचाव के लिए उन्होंने कलम का कागज खोलने के बाद अलसी के तेल के साथ कॉपर आक्सोक्लोराइड का पेस्ट लगाया। संजीव के अनुसार कलम किए गए पौधौं पर साल में दो बार कॉपर आक्सोक्लोराइड की स्प्रे की जानी चाहिए। पहली स्प्रे अगस्त माह में और दूसरी स्प्रे फरवरी के दूसरे सप्ताह में करने से कैंकर की समस्या काफी हद तक रुक जाती है। चूंकि रॉयल के चालीस साल से अधिक आयु के पेड़ों में ग्राफ्टिंग के लिए उपयुक्त टहनियां नहीं मिलता, इसलिए इन पर स्किन ग्राफ्टिंग की जानी चाहिए। इसी के जरिए स्पर की किस्मों की सफल ग्राफ्टिंग हो सकती है। स्किन ग्राफ्टिंग में सन बर्न का खतरा रहता है। इससे बचाव के लिए पेस्ट अथवा हार्ड पेंट का प्रयोग किया जाना चाहिए। जिन पौधों की टहनियां पतली व अच्छी हों, वहां टंग ग्राफ्टिंग कामयाब है और उसमें कैंकर का खतरा भी न के बराबर रहता है।
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