इस रोग के लक्षण पौधों के तनामूलसंधि या शिखर भाग पर दिखाई देते हैं। आरम्भ में संक्रमण प्राय: पौधे के जमीन के साथ लगते हुए हिस्से में तने की छाल पर होता है व सांकुर टहनी को प्रभावित करता है। रोग्रस्त भाग पर भूरे, खुरदरे धब्बे दिखाई देते हैं जो साधारणत: अण्डाकार व कभी-कभी अनियमित आकार के भी हो सकते हैं। संक्रमित भागों में नम रिसाव देखा जा सकता है। रोग तने क ऊपर व नीचे की दिशाओं में शीघ्रता से फैलकर पौधेें के चारों ओर कत्थई से भूरे लाल रंग का घेरा बना देता है। रोग्रस्त छाल सूख कर भूरे कैंकर के रूप में दिखाई देती है। रोग्रस्त पौधों की पत्तियां पीली व उनकी शिराएं-किनारे हल्के लाल रंग के हो जाते हैं। बरसात के मौसम में रोगी पौधों की ऊपरी शाखाओं में हल्के बैंगनी-लाल रंग की झलक वाली पत्तियां दिखाई देती हैं। रोगी पौधें के फल आकार में छोटे व समय से पूर्व ही लाल हो जातें हैं। कभी-कभी इस रोग का संक्रमण फलों पर भी दिखाई देता है और फल भण्डारण से पहले या भण्डारगृह में सड़ जाते हैं।
रासायनिक उपाय
मार्च व सितम्बर माह में पौधे के तने के चारों ओर 15 से 20 फुट के क्षेत्र में मैन्कोजैब (800 ग्राम प्रति 200 लीटर पानी)या कॉपर ऑक्सीक्लोराइड (1 किलो ग्राम प्रति 200 लीटर पानी) नामक फफूंदनाशकों का घोल बनाकर डालें। यह दवाई कम से कम 15 से 20 सेंटिमीटर तक मिटटी में पहुंचनी चाहिए। इसके लिए प्राय: 20 से 25 लीटर दवाई का घोल प्रति पौधा डाला जाना आवश्यक है। अधिक संक्रमण होने पर रिडोमिल एम.जैड.(500 ग्राम प्रति 200 लीटर पानी)नामक फफंूदनाशक का प्रयोग करें।
मार्च व सितम्बर माह में पौधे के तने के चारों ओर 15 से 20 फुट के क्षेत्र में मैन्कोजैब (800 ग्राम प्रति 200 लीटर पानी)या कॉपर ऑक्सीक्लोराइड (1 किलो ग्राम प्रति 200 लीटर पानी) नामक फफूंदनाशकों का घोल बनाकर डालें। यह दवाई कम से कम 15 से 20 सेंटिमीटर तक मिटटी में पहुंचनी चाहिए। इसके लिए प्राय: 20 से 25 लीटर दवाई का घोल प्रति पौधा डाला जाना आवश्यक है। अधिक संक्रमण होने पर रिडोमिल एम.जैड.(500 ग्राम प्रति 200 लीटर पानी)नामक फफंूदनाशक का प्रयोग करें।
जैविक उपाय
1 जीवाणु जेसे एन्टैरोबैक्टर एरोजीनस, सयूडोमोनास पुटिडा व बैसीलिस सबटीलिस इस रोग को कम करने में प्रभावशली पाए गए हैं। टाइकोडरमा फफूंद की कुछ प्रजातियां जेसे विरिडर, लोंगीब्रैकेटम, वाइरान्स हरजानियम भी इस रोग के नियंत्रण में उपयोगी सिद्घ हुई हैं।
2 मूलवृन्त जैसे एम-4, एम-9, एम. एम-115, मैलस प्रूनिफोलिया तथा क्रेब एप्पल इस रोग की प्रतिरोधी किस्में हैं।
3 सरसों की खली व दरेक के बीज या पत्ते , बाणा के पत्तों का प्रयोग भी रोग केकम करने में उपयोगी सिद्घ हुए हैं।
4 सरसों व गैंदा क पौधों की मल्चिंग भी इस रोग को कम करती है।
1 जीवाणु जेसे एन्टैरोबैक्टर एरोजीनस, सयूडोमोनास पुटिडा व बैसीलिस सबटीलिस इस रोग को कम करने में प्रभावशली पाए गए हैं। टाइकोडरमा फफूंद की कुछ प्रजातियां जेसे विरिडर, लोंगीब्रैकेटम, वाइरान्स हरजानियम भी इस रोग के नियंत्रण में उपयोगी सिद्घ हुई हैं।
2 मूलवृन्त जैसे एम-4, एम-9, एम. एम-115, मैलस प्रूनिफोलिया तथा क्रेब एप्पल इस रोग की प्रतिरोधी किस्में हैं।
3 सरसों की खली व दरेक के बीज या पत्ते , बाणा के पत्तों का प्रयोग भी रोग केकम करने में उपयोगी सिद्घ हुए हैं।
4 सरसों व गैंदा क पौधों की मल्चिंग भी इस रोग को कम करती है।